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38 :: मूकमाटी-मीमांसा
उपासना में लीन होता है, जिसके फलस्वरूप स्वयं अध्यात्मनिष्ठ होकर नई सृष्टि का अधिष्ठान बन कर परमा शक्ति के दर्शन एवं दिव्य वरदान का अधिकारी होता है। इस प्रकार अश्वपति की इस योगसाधना और योगसिद्धि की गाथा श्री अरविन्द की लम्बी योगसाधना एवं योगसिद्धि के इतिहास का प्रतिरूप बन गई है। 'एक देवता का श्रम' (A god's labour) जैसी रहस्योद्घाटिनी कविता में धरती की जड़ता की अतल गहराइयों से निरन्तर जूझते हुए समस्त प्रकृति के भागवत रूपान्तर के महत् संकल्प को चरितार्थ करने की अदम्य ऊर्जा का अखण्ड स्रोत प्रवाहित करने वाले मन्त्रद्रष्टा एवं भविष्यस्रष्टा श्री अरविन्द की जिस अथक तपस्या की अभिव्यक्ति हुई है, उसका घनीभूत स्वरूप अश्वपति की तपगाथा में प्रत्यक्ष है । इस प्रकार 'सावित्री' महाकाव्य श्री अरविन्द के समग्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को आत्मसात् किए हुए है। ‘दिव्य जीवन' (Life Divine ) और 'योग समन्वय' (Synthesis of Yoga) जैसी कृतियों में सम्बोधि और सहज प्रज्ञा की जो अभिव्यक्ति हुई है वह मानों 'सावित्री' में आकर सच्चिदानन्दमय सहजानुभूति की चरम परिणति को पहुँच गई है। इस दृष्टि से 'सावित्री' महाकाव्य सच्चे अर्थों में अधिमानस भाव भूमि पर अतिमानस परम व्योम के ऊर्ध्वशिखरों से अवतरित परावाणी को संवहन करने वाला ऋचाकाव्य-दिव्य मन्त्रकाव्य है । अश्वपति की तपगाथा सावित्री महाकाव्य की आधारशिला है।
'सावित्री' के द्वितीय भाग के अन्तर्गत 'दिव्य ज्वाला के जन्म एवं शैशव' शीर्षक सर्ग से मानवी 'सावित्री' की मूल कथा आरम्भ होती है। यहीं से व्यास के 'महाभारत' के 'सावित्री उपाख्यान' का आधार ग्रहण किया गया है। इसके पूर्व प्रथम भाग का विपुल वर्णन - विस्तार वैदिक साहित्य के रहस्यमय प्रतीकवाद तथा स्वयं श्री अरविन्द की निजी ऋतम्भरा मेधा और पश्यन्ती प्रज्ञा की गुह्य एवं आध्यात्मिक अनुभूतियों पर आधारित है । 'सावित्री' के प्रथम भाग में कथा एवं गाथा का रूप गौण है और अध्यात्मनिष्ठ योगसाधना की सूक्ष्म भावयात्रा का रूप प्रधान । इस प्रकार अश्वपति की तपगाथा परोक्ष रूप में पूर्णयोग के प्रवर्तक दिव्य जीवन के गायक और मंगलमय भागवत भविष्य के पुरोधा श्री अरविन्द की ही रहस्यमयी आत्मकथा है ।
'सावित्री' महाकाव्य वैदिक प्रतीकवाद और उपनिषदों के अध्यात्मवाद का परम्परागत पुराख्यान मात्र न होकर एक नूतन भविष्योन्मुख जीवनदर्शन का रूप प्रदान करता है और इस प्रक्रिया में वर्तमान विश्व की अनेक पहेलियों को उजागर करता हुआ उनके समाधान का सन्देश देता है । इस दृष्टि से 'सावित्री' महाकाव्य एक साथ आधुनिक युगबोध और भविष्यदर्शन का काव्य है । प्राचीन भारतीय दर्शन और आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान की जाने कितनी मान्यताओं और अवधारणाओं का उसमें अद्भुत समन्वय हुआ है। मानवीय चेतना की भावयात्रा और पार्थिव प्रकृति की विकास यात्रा की गाथा उसमें एक साथ वर्णित है।
'सावित्री' महाकाव्य के प्रथम भाग के आरम्भिक दो सर्गों में 'प्रतीक ऊषा' (Symbol Dawn ) तथा 'मूल समस्या' (The Issue) शीर्षकों के अन्तर्गत धरती पर परमा शक्ति 'सावित्री' के आविर्भाव एवं संचरण की जो झलक चित्रित है, वह बड़ी नाटकीय शैली में प्रस्तुत की गई है और उसके आवाहक अश्वपति की विश्वकल्याण प्रेरित तपस्या
विशद गाथा की पृष्ठभूमि है ।
'सावित्री' के आरम्भिक दो सर्ग बड़ी रहस्यमयी भाषा-शैली में समग्र महाकाव्य के प्रमुख संकेत सूत्रों का उद्घाटन करते हुए एक प्रकार से उसके पुरोवचन अथवा प्रस्तावना का रूप प्रस्तुत करते हैं। इस अंश में ऋग्वेद के उषा सूक्त की-सी मनोरम अभिव्यक्ति हुई है जिसके माध्यम से सृष्टि के प्रथम प्रभात की भव्यता का आकर्षक उन्मेष मिश्रित है।
'सावित्री' महाकाव्य का प्रथम सूत्र वाक्य ही अपने आप में एक रहस्यमय मन्त्र है जो सावित्री के आविर्भाव के