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28 :: मूकमाटी-मीमांसा
बाधाएँ आती हैं। उनका निराकरण करने के लिए विवेक अनिवार्य है । तीसरे खण्ड का सार है : 'मन, वचन, काय की निर्मलता से, शुभकर्मों के सम्पादन से, लोककल्याण की कामना से पुण्य उपार्जित होता है। क्रोध, मान, माया, लोभ से पाप फलित होता है।' इसी मान्यता के आधार पर कुम्भकार के द्वारा माटी के विकास क्रम में पुण्य कर्म की श्रेयस्कर उपलब्धि चित्रित की गई है । अन्तिम खण्ड इस पुस्तक का सबसे बड़ा खण्ड है । उसका पटल अत्यन्त व्यापक है । कुम्भकार कुम्भ का निर्माण करता है, अग्नि में तपाता है और अन्त में अवे से निकाल कर ठोक-बजा कर देखता है। और भी अनेक प्रसंग इस खण्ड में आते हैं।
प्रस्तुत महाकाव्य के रचयिता जैनाचार्य हैं । अत: यह स्वाभाविक है कि इस कृति के माध्यम से उन्होंने जैन दर्शन का प्रतिपादन किया है, लेकिन उसे ऐसा रूप प्रदान किया है कि वह सहज ही सामान्य पाठक के गले उतर जाता है। यह कहने में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है कि यह मानव जीवन का महाकाव्य है । प्रत्येक व्यक्ति मूलत: अकिंचन होता है । किन्तु उसके भीतर महानता की अमित सम्भावनाएँ छिपी होती हैं। जिस प्रकार दीपक की लौ को ढक देने से उसका प्रकाश मन्द पड़ जाता है, उसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर आदि से आत्मा पर आवरण चढ़ जाता है और उसका प्रकाश धुँधला पड़ जाता है।
मिट्टी उसी प्रारम्भिक अवस्था की प्रतीक है। उसके परिशोधन का अर्थ होता है आत्मा पर पड़े कषायों के आवरण का हट जाना। जिसकी आत्मा पर से आवरण हट जाता है, वह विकास द्वारा उच्च सोपान पर आरूढ़ हो जाता है। आगे की यात्रा फिर उतनी कठिन नहीं रहती। वैसे सतत जागरूकता मंज़िल रूप अन्तिम चरण में पहुँचने तक जरूरी होती है ।
मार्थ तथा शोधार्थियों के लिए यह कृति एक राजमार्ग प्रशस्त करती है। लेकिन सिद्धि उन्हीं को प्राप्त होती है, जो साधना करते हैं। माटी को कुम्भकार साफ़ करता है । उसकी अशुद्धियों को दूर करके उसे मृदु बनाता है। फिर चाक पर घुमाता है, अपनी कुशल उंगलियों से उसे आकार देता है, थपथपाता है तब जाकर कुम्भ तैयार होता है। फिर उसकी अग्नि परीक्षा होती है । कच्चा घड़ा तो कभी भी फूट सकता है। कुम्भकार उसे पकाता है, आग में तपाता है । तब कहीं ऐसा घट तैयार होता है जो जीवन की सार्थकता प्राप्त करता है।
इसी रूपक को मानव जीवन के साथ जोड़ें तो कह सकते हैं कि यह शरीर माटी है, उसका धर्ता कुम्भकार है और परिशोधन की प्रक्रिया साधना है।
विस्मय होता है कि एक धर्मपुरुष की कल्पना ने कितने विराट् पटल की रचना की है, और उस पर ऐसे चित्र अंकित किए हैं कि पाठक उनमें डूब जाता है । पाठक का विभ्रान्त मन वह रास्ता पा लेता है, जिसकी तनधारी मनुष्य अभीप्सा करता है, लेकिन चलते-चलते भटक जाता है ।
काव्य की भाषा अत्यन्त सरल है, शैली रोचक है, विषय प्रतिपादन बोधगम्य है। भाषा का प्रवाह अनूठा है। जहाँ-जहाँ कवि ने प्रकृति का चित्रण किया है, वहाँ पाठक का मन विभोर हो उठता है ।
कुल मिलाकर मैं इस महाकाव्य को हिन्दी की कालजयी रचना मानता हूँ। इसे जो भी पढ़ेगा, उसे जीवनशोधन की प्रेरणा अवश्य मिलेगी। इस दृष्टि से कृतिकार हम सबके साधुवाद के पात्र हैं।
लेकिन एक बात मैं पुस्तक के आकार के विषय में कहे बिना नहीं रह सकता । आज का मानव समयाभाव से आक्रान्त है । उसके पास इतना समय नहीं है कि वह इतने विशाल ग्रन्थ को पढ़े। उतनी पठन-पाठन में रुचि भी नहीं है । अतः पुस्तक के कतिपय विवरण कुछ संक्षिप्त होते तो अधिक अच्छा होता। दूसरे, कथासूत्र भी कुछ सीमित कर दिया
तो पाठक के लिए यह महाकाव्य अधिक रोचक और संग्राह्य हो जाता । भाषा बहुत सुगम है, पारिभाषिक