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हिन्दी का कालजयी महाकाव्य : 'मूकमाटी'
पद्मश्री यशपाल जैन 'मूकमाटी' को मैं आद्योपान्त पढ़ गया हूँ। इस का नाम जब मैंने पहली बार सुना तो बड़ा विचित्र-सा लगा। माटी जड़ होती है और जड़ कभी मुखर नहीं हो सकता। लेकिन पुस्तक को देखा तो मेरा भ्रम सहज ही दूर हो गया। जिस मूकमाटी की कल्पना पुस्तक में की गई है, वह सामान्य माटी नहीं है। वह असामान्य है। सरिता तट की यह माटी अपनी विपन्नावस्था से व्यथित होकर 'माँ धरती' के सम्मुख अपनी वेदना को व्यक्त करती है और अन्त में प्रार्थना करती है कि 'हे माँ ! मुझे पद दो, पथ दो और पाथेय भी दो।'
धरिणी उससे विचलित हो उठती है और गुरु-गम्भीर वाणी में उसकी अन्तर्निहित सत्ता की ओर संकेत करती है। कहती है कि 'सत्ता शाश्वत होती है और प्रतिसत्ता में उत्थान-पतन की अमिट सम्भावनाएँ समाहित रहती हैं, जैसे बीज में वृक्ष समाया रहता है । समुचित क्षेत्र और समुचित खाद, हवा और जल उसे मिल जाते हैं तो वह कुछ ही समय में विशाल वट वृक्ष का रूप धारण कर लेता है । यही इसकी महत्ता है । सत्ता शाश्वत और भास्वत होती है।' आगे वह मार्ग सुझाती है :
"... जीवन का/आस्था से वास्ता होने पर/रास्ता स्वयं शास्ता होकर सम्बोधित करता साधक को/साथी बन साथ देता है। आस्था के तारों पर ही/साधना की अंगुलियाँ चलती हैं साधक की,/सार्थक जीवन में तब
स्वरातीत सरगम झरती है !" (पृ. ९) इसके साथ ही माटी की अकिंचनताजन्य आत्मवंचना को झकझोरकर वह कहती है :
“तूने जो/अपने आपको/पतित जाना है/लघु-तम माना है यह अपूर्व घटना/इसलिए है कि/तूने/निश्चित-रूप से प्रभु को,/गुरुतम को/पहचाना है !/तेरी दूर-दृष्टि में पावन-पूत का बिम्ब/बिम्बित हुआ अवश्य !
असत्य की सही पहचान ही/सत्य का अवधान है, बेटा!" (पृ. ९) फिर वह गहरे मर्म का उद्घाटन करती हुई कहती है :
"आस्था के विषय को/आत्मसात् करना हो उसे अनुभूत करना हो/...तो/साधना के साँचे में
स्वयं को ढालना होगा सहर्ष !" (पृ. १०) कह सकते हैं कि इसी अधिष्ठान पर इस महाकाव्य का भवन खड़ा किया गया है। चार खण्डों में माटी की जीवन-साधना का विस्तार से वर्णन किया है और अन्तत: उसकी मनोकामना की पूर्ति कराकर उसके जीवन की धन्यता उजागर की है। पहले खण्ड में जीवन का परिशोधन है । मिट्टी के पिण्ड में जो अशुद्ध तत्त्व मिले हैं, उन्हें दूर करना है । कुम्भकार यही करता है । खण्ड दो में बताया गया है कि परिशोधन की इस प्रक्रिया में कितनी सावधानी की आवश्यकता है। उसमें