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मूकमाटी-मीमांसा :: 25 विचार सदातन प्रकृति के ही यहाँ विन्यस्त नहीं हैं, सामयिक सन्दर्भो के भी हैं। कुछ काव्य 'सामयिक' प्रकृति के होते हैं और कुछ सदातन' । सामयिक में अपने देश-काल की समस्याओं पर वैचारिक प्रतिक्रिया व्यक्त होती है जबकि सदातन में उनसे तटस्थ रहकर सदातन 'बन्धन'-'मुक्ति' की समस्याओं पर । संस्कृत के इन परम्पराप्रतिष्ठ महाकाव्यों में अतीत के ऐतिहासिक या पौराणिक पात्रों को आधार बनाकर चिरन्तन मूल्यों की ही चर्चा की गई है परन्तु आलोच्य कृति में 'चिरन्तन' के साथ 'अद्यतन' समस्याओं को भी लिया गया है । रचनाकार अपने समय का होकर चिरन्तन का होता है तो एक प्रकार की समग्रता उसमें लक्षित होती है । इस कृति की सबसे पहली विशेषता तो यही है कि इसका मुख्य पात्र सर्वसाधारण माटी या मूकमाटी है - दलिता, पददलिता । आज के पूँजीवादी और तानाशाही वृत्ति की प्रतिक्रिया में रचयिता इसी साधारण' का पक्ष लेता है और उसमें सम्भावना के रूप में निहित 'असाधारणता' को मूर्त करना चाहता है । कृति में आज के तथाकथित राजनयिकों की, उनकी तथाकथित स्थितियों की आलोचना की है। उसने पूँजीवाद की, तथाकथित लोकतन्त्र की चुनावी पद्धति और उसकी दुष्परिणति की, 'समाजवाद', जहाँ 'मैं' पहले
और 'समाज' बाद में रहता है- की, परिग्रही वैश्यवर्ग की, आतंकवाद की, पूँजीवादी वृत्ति के प्रतीक स्वर्ण की जैसी सामयिक समस्याओं की चर्चा तो की ही है, साहित्य की समस्याओं पर भी यत्र-तत्र अपने मत रखे हैं। इस प्रकार यह चिरन्तन विषयों के साथ अद्यतन विषयों को भी अपना वर्ण्यविषय बनाती हुई धर्म और अध्यात्म के साथ सामाजिकता को भी अपनी पुनीत कुक्षि में समेटे हुई है।
अन्तिम बिन्दु परम्पराप्रतिष्ठ संस्कृत महाकाव्यों के साथ तुलना के सन्दर्भ में आती है - अभिव्यक्ति कला और भाषा सौष्ठव की। संस्कृत महाकाव्य संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं और प्रस्तुत कृति परिष्कृत परिनिष्ठित हिन्दी में। संस्कृत महाकाव्यों की लयवत्ता निर्धारित छान्दस साँचों में बद्ध है और आलोच्यकृति की लयवत्ता मुक्त है, स्वच्छन्द छन्दोमय है। काव्यतत्त्व या भाषागत कवित्वोचित तत्त्व 'शब्द की शक्ति' और 'सर्जक की कल्पना या प्रतिभा शक्ति' का मुखापेक्षी होता है। यों शब्द में भी सर्जक की प्रतिभा ही शक्ति भरती है। कुल मिलाकर प्रामुख्य उसी का ही है। परम्परा में 'निरुक्ति' एक अलंकार है, जहाँ अद्भुत और चमत्कारी निरुक्तियों द्वारा चमत्कार पैदा किया जाता है। आचार्यश्री ने भी आलोच्य कृति में निरुक्तियों की बाढ़ लगा दी है। इस सन्दर्भ में उन्होंने एक और चामत्कारिक प्रणाली ग्रहण की है और वह है शब्दों के विलोमीकरण से अर्थ दोहन की । परम्पराप्रतिष्ठ महाकाव्यों में, चित्रबन्धों में यह चमत्कार मिलता है । इस कृति में विलोम पाठ पर (नदी में दीन) भी चमत्कार निर्भर करता है । नारी (न+अरि), महिला (मह= उत्सव+ला = लाती), अबला (अव= अवगम+ला = लाती), सुता (सु+ता), दुहिता (दो हित वाली), स्त्री (स्+त्री-धर्म-अर्थ-कामवाली), मातृ (ज्ञानशक्ति) आदि निरुक्तियों के उदाहरण हैं। विलोम पद्धति के उदाहरण हैं- राख=खरा, लाभ भला, राही =हीरा आदि । आलंकारिक अभिव्यक्ति से भाषा चित्रभाषा बन गई है। भावावेश में आलंकारिक उक्तियों का आ जाना उनके 'अपृथग्यत्लनिवर्त्यत्व' का ज्वलन्त निदर्शन है। इसके उदाहरण कहीं भी देखे जा सकते हैं। पुस्तक का प्रथम पृष्ठ खोलते ही प्रात:काल का आलंकारिक वर्णन, उपमाओं की माला देखने को मिलती है। चतुर्थ खण्ड में घर की ओर जा रहा सेठ' (पृ. ३४९-३५२) की मुद्रा पर अनेक कल्पनाओं का अविरल प्रवाह अनुभव योग्य है । एक उदाहरण :
"प्राची की गोद से उछला/फिर/अस्ताचल की ओर ढला प्रकाश-पुंज प्रभाकर-सम/आगामी अन्धकार से भयभीत
घर की ओर जा रहा सेठ "।" (पृ. ३५१) इस तरह की शताधिक कल्पनाप्रवण पंक्तियाँ उद्धृत की जा सकती हैं। सारांश यह कि प्रस्तुत रचना की भाषा परिष्कृत