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मूकमाटी-मीमांसा :: 31
नया प्रकार - प्रवचन कविता' का प्रादुर्भाव हुआ है । कविता की दृष्टि से 'मूकमाटी' का यही महत्त्व है।
तथापि यह मन में आता है कि काश, 'मूकमाटी' में कविता की मात्रा अधिक होती ! जब प्रकृति का वर्णन करना ही था तो ज़रा जमकर किया जाता, जब दृष्टान्त के रूप में प्रकृति और पदार्थों का विनिवेश करना ही था तो दृश्यों का विधान अधिक मात्रा में होता और तब उनसे आध्यात्मिक अर्थ निकाले जाते या पदार्थों को प्रतीकत्व प्रदान किया जाता किन्तु मुनीक्षा निर्णायक है तो क्या कहा जा सकता है ?
तथापि, 'मूकमाटी' में एक विशेष प्रकार का आनन्द आता है और यह आनन्द आचार्यश्री की तर्क शैली के कारण आता है। भूमिका में, आचार्य विद्यासागर ने ईश्वर की अवधारणा का खण्डन किया है, जो तर्कसिद्ध है : “जिनशासन के धर्मोपदेश को आधार बनाकर अपने मत की पुष्टि के लिए ईश्वर को विश्व-कर्मा के रूप में स्वीकारना ही ईश्वर को पक्षपात की मूर्ति, रागी-द्वेषी सिद्ध करना है। क्योंकि उनके कार्य, कार्य-भूत संसारी जीव, कुछ निर्धन-कुछ धनी, कुछ निर्गुण-कुछ गुणी, कुछ दीन-हीन-दयनीय-पदाधीन, कुछ स्वतन्त्र-स्वाधीन-समृद्ध, ....कुछ सुरूपसुन्दर, कुछ कुरूप-विद्रूप आदि-आदि क्यों हैं ?" ('मानस-तरंग, पृ. XXIII ) - इसी प्रकार स्याद्वाद और अनेकान्तवाद के सिद्धान्त, आधुनिक ज्ञान और विज्ञान के युग में अधिक बुद्धिसंगत, अधिक उदार और अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होते हैं । जैनियों, बौद्धों और आजीवकों आदि को नास्तिक इसीलिए कहा गया है कि वे वेद को प्रमाण नहीं मानते और वैदिक परम्परा में जो ब्रह्म, आत्मा आदि को माना (जिस रूप में भी) गया है, उसे नास्तिक मतावलम्बी नहीं मानते । वे चेतना (Consciousness) को तो मानते हैं किन्तु उपनिषदों या वेदान्त की तरह किसी ब्रह्म या ईश्वर का अंश नहीं मानते। चेतना का उत्कर्ष योग द्वारा सम्भव है, अतएव नास्तिक मत में योग की स्वीकृति है, किसी चिरन्तन सत्ता की नहीं। कालान्तर में जैन एवं बौद्ध परम्परा में स्वयं इनके प्रवर्तकों-तीर्थंकरों और गौतम बुद्ध को ईश्वर मान लिया गया और योगियों के इन सम्प्रदायों में पूजा-उपासना, मूर्ति आराधना चल पड़ी किन्तु मूल तत्त्व बोध में ईश्वर नहीं है, ब्रह्म नहीं है, आत्मा का अजर-अमर-अक्षय रूप (वैदिक मत के अनुरूप) नहीं है। बौद्धों में निरात्मा या नैरात्मय का प्रत्यय मिलता है।
आश्चर्य यह है कि जब नैरात्म्य है या मात्र चेतना है तो नास्तिक मतों में आवागमन और कर्म-फल, स्वर्गनरक आदि की धार ओं को मान्यता कैसे मिल गई ? इसका उत्तर यह है कि जैन और बौद्धों ने इसके लिए अपने-अपने तर्क दिए हैं किन्तु इनके बावजूद, ब्राह्मणवादी या वैदिक परम्परा में इनको स्वीकृति नहीं मिल सकी और इसी कारण वैदिक परम्परा में जो न्यायशास्त्र विकसित हुआ, उसमें इनका विशद खण्डन हुआ है।
बहरहाल, मूकमाटी' में जैन तत्त्वज्ञान के पक्ष में व्यवस्थित रूप में, काव्यात्मक रूप देते हुए जो तर्कशृंखला और दृष्टान्तों का सिलसिला है, वह अपनी युक्तिशक्ति से प्रभावित करता है। इसमें एक ही न्यूनता है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण, पदार्थ से चेतना के गुणात्मक विकास के जो तर्क और तथ्य हैं, उनका उत्तर नहीं दिया गया। यह होता तो और अधिक भरा-पूरापन आ जाता।
समग्रतः 'मूकमाटी' हिन्दी में एक सर्वथा नए ढंग की रचना है । इसे रूढ़िगत दृष्टि से नहीं देखी जाना चाहिए कि यह महाकाव्य है या खण्डकाव्य- इन कोटियों से यह काव्य परे है । इसे एक नया प्रयोग ही मानना चाहिए और इस प्रयोगशीलता तथा मौलिकता के कारण 'मूकमाटी' एक रोचक और दिलचस्प महाकाव्य या बड़ा काव्य है।
आचार्य श्री विद्यासागर में निश्चय ही काव्यात्मक प्रतिभा है और उनमें तत्त्वज्ञान को स्पष्ट और साकार करने की क्षमता है।
मैं आचार्य विद्यासागरजी को इस रचना के लिए बधाई देता हूँ।