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मूकमाटी-मीमांसा :: 23 परन्तु क्या पापियों से भी/प्यार करती है ?" (पृ. ४५६-४५७) और कहता है कि यदि उन्हें पार नहीं लगाती तो कुम्भ के सहारे पार होने वाले सपरिवार पापी सेठ को भी डुबा दो। नदी कहती है कि वे समर्पित हैं, वैभव से विरक्त हैं। आतंकवादी फिर अपने अनुकूल होता न देखकर पुन: उग्र रूप ग्रहण करता है । सेठ का संघर्ष आतंक से चलता है । उनको फाँसने के लिए फेंके गए जाल को पवन उड़ा ले जाता है। कुम्भ के प्रति समर्पित परिवार की रक्षा कुम्भ के संकेत पर पवन करता है और दहलते हुए परिवार को नदी भी कहती है :
"उतावली मत करो!/सत्य का आत्म-समर्पण
और वह भी/असत्य के सामने ?" (पृ. ४६९) आतंकवाद और उग्र होता है और अपनी न चलती देख ‘मन्त्र' का स्मरण करता है । देव-दल आता है, पर वह अपनी लक्ष्मण रेखा का इज़हार करता है । आतंकी दल को अपराध बोध होता है । सभी नाव से जल में एक-दूसरे को सहारा देते हुए कूल से लगने वाले ही हैं कि कूल :
"तट स्वयं अपने करों में/गुलाब का हार ले कर
स्वागत में खड़ा हुआ है।" (पृ. ४७९) और कुम्भ के मुख से मंगल कामना निकल रही है । छने जल से कुम्भ को भरकर परिवार आगे बढ़ा कि वही स्थान आ गया जहाँ शिल्पी कुम्भकार माटी लेने आया था। परिवार सहित कुम्भ कुम्भकार का अभिवादन करता है । परा - सत्ता आत्मसत्ता का उत्कर्ष देख प्रसन्न होती है । निर्देशक सद्गुरु कुम्भकार कहता है :
"यह सब/ऋषि-सन्तों की कृपा है,/उनकी ही सेवा में रत
एक जघन्य सेवक हूँ मात्र,/और कुछ नहीं।” (पृ. ४८४) अन्तत: सद्गुरु के भी गुरु सामने समासीन । आतंकवादी उनसे 'वचन' चाहता है पर वह अपने सद्गुरु की देशना बताते हुए कहते हैं कि सन्त 'वचन' नहीं, ‘प्रवचन' देता है।
"दसरी बात यह है कि/बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का
आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है।" (पृ. ४८६) प्रवचन पर विश्वास लाओ, विश्वास को अनुभूति मिलेगी, मगर मार्ग में नहीं, मंज़िल पर ।
___ इस प्रकार संवाद से कथा आगे बढ़ी है और आरब्ध का निर्वाह हुआ है। आरम्भ ही अन्त में पर्यवसन्न हुआ है। यात्रा वृत्ताकार है । वृत्त पूर्णता का, स्व-भाव का प्रतीक है। गुरु-शिष्य की अविच्छिन्न परम्परा ही सत् सम्प्रदाय है। जिसका सत् सम्प्रदाय नहीं, वह गुमराह है।
. परम्पराप्रतिष्ठ संस्कृत महाकाव्यों में भी संवादों की धारा है। 'रामायण', 'महाभारत' संवादों और उपदेशों से भरे पड़े हैं। 'कुमारसम्भव' में पार्वती-सप्तर्षि का, पार्वती-शम्भु का, 'रघुवंश' में दिलीप-सिंह का,कौत्स शिष्य बरतन्तु का, कुश और नगरी का, 'किरातार्जुनीय' में भीम और युधिष्ठिर का, किरात और अर्जुन का, 'शिशुपाल वध' में कृष्ण और शिशुपाल का, तथा 'नैषधीयचरित' में राजा नल और हंसी का, कलि के परिवार का खण्डन-मण्डन द्रष्टव्य है । पर इन संवादों से आलोच्य कृति के संवाद का अपनी प्रतीकात्मकता में कुछ और ही वैशिष्ट्य है । कल्पना और अलंकार विधान सर्वत्र समान है।