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20 :: मूकमाटी-मीमांसा
प्रक्रान्त है। ऋतुओं - शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म ने अधिक जगह नहीं घेरी है। इसी प्रकार सूर्य, चन्द्र आदि का भी वर्णन सन्तुलित रूप में ही हुआ है, जो कथाधारा पर थोपा हुआ नहीं लगता, प्रवाह की अनिवार्यता से ये वर्णन सहज सम्प्रसूत हैं । पात्रों और घटनाओं के कल्पनाप्रवण वर्णन काव्य को रोचकता प्रदान करते हैं और शुष्क उपदेशपरक ग्रन्थ होने से बचा लेते हैं।
(ग) संवाद योजना
आलोच्य कृति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंश है - संवाद योजना । संवाद योजना नाटकों में भी होती है, पर उसका विधान रंग चेतना के अंग रूप में होता है । श्रव्य काव्य में वह महज़ कथाधारा को गम्भीर बनाता है और आगे बढ़ाता है । परम्पराप्रतिष्ठ संस्कृत महाकाव्यों की संवाद योजना से आलोच्य कृति की संवाद योजना इस मायने में विशिष्ट है कि इसमें चेतन प्राणियों के पारस्परिक संवाद तो हैं ही, उनसे कहीं अधिक यहाँ अचेतन पदार्थों को प्रतीकात्मक रूप देकर या मानवीकरण द्वारा संवाद कराए गए हैं। इन संवादों की गम्भीरता दोहरी तब हो जाती है जब एक तरफ वे प्रतीक बन जाते हैं और दूसरी तरफ वे संवाद बोलते हैं । प्रस्तुत कृति में कुछ प्रमुख संवाद इस प्रकार हैं- (१) माटी - धरती संवाद (२) शिल्पी माटी संवाद (३) कंकर - शिल्पी संवाद (४) कंकर-माटी संवाद (५) दाँत - शिल्पी संवाद (६) रसना - रस्सी संवाद (७) मछली का मछली से संवाद (८) लेखनी - युग संवाद (९) मछली-माटी संवाद (१०) पुन:, माटी-शिल्पी संवाद (११) माटी-काँटा संवाद (१२) कण्टक-शिल्पी संवाद (१३) वीर रस - शिल्पी संवाद (१४) पुन:, माटी - शिल्पी संवाद (१५) सागर - राहु संवाद (१६) कुम्भ - अग्नि संवाद ( १७ ) सेवक- शिल्पी संवाद तथा (१८) अन्य । इसमें संवाद के अतिरिक्त स्वगत कथन और आत्मचिन्तन भी है। कहा गया है कि संवाद योजना से न केवल कथा आगे बढ़ती है अपितु वह गम्भीरता भी प्रदान करती है। प्रथम संवाद है- माटी का माता धरती से । माटी पार्थिव है, पृथ्वी का अंश है, शरीर भी पार्थिव है प्राणियों का, पर मुक्ति की, बन्धन से मुक्ति की नैसर्गिक कामना मानवीय पार्थिव शरीर के भीतर जगती है, वहीं सम्भव है । आत्मग्लानि नितान्त पवित्र भावना है । माटी में यानी उस प्रतीक के माध्यम से पार्थिव शरीर से देहात्मबोध की भूमिका पर स्थितिबद्ध आत्मा में यह भावना पैदा होती है :
० " स्वयं पतिता हूँ / और पातिता हूँ औरों से,
... अधम पापियों से / पद- दलिता हूँ माँ ! " (पृ. ४) ० " इस काया की / च्युति कब होगी ? बता दो, माँ इसे !” (पृ. ५)
'आरम्भावस्था' एक प्रकार से यह काव्यारम्भ है, जहाँ मुख सन्धि के अन्तर्गत आने वाले “औत्सुक्यमात्रमारम्भः ” का सूत्रपात होता है । नायक या नायिका माटी का संकल्प मुख्य प्रयोजन के प्रति जगता है। 'इस काया की च्युति कब होगी'- से स्पष्ट है कि माटी कायाबद्ध जीवात्मा का प्रतीक है। माटी की क्या काया, माटी तो स्वयं काया है ? धरती गन्धवती है, उसमें रहस्य की गन्ध है, उसका आघ्राण पाने के लिए 'आस्था' की नासा खुली रखनी पड़ती है। 'माटी' में धरती की सत्ता रहस्यमय परा सत्ता का प्रतीक है, अनुरूप परिवेश में इस गुप्त सम्भावना का प्राकट्य होता है। धरती के उत्तर से यही संकेत व्यंजित होता है। धरती कहती है :
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'... जीवन का / आस्था से वास्ता होने पर
रास्ता स्वयं शास्ता होकर / सम्बोधित करता साधक को