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मुकमाटी-मीमांसा :: 19
“स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से,
अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ !" (पृ. ४) यद्यपि उदात्त सम्भावनाओं से मण्डित माटी की यह विनय भावना है। इसके विपरीत संस्कृत महाकाव्यों के कवि अपने उदात्त नायक - आधिकारिक कथा के फल-स्वाम्य के अधिकारी नायक की महिमा से अपने काव्य का आरम्भ करते हैं। यह बात या इतनी समता अवश्य है कि 'मूकमाटी' की भाँति उन्हें भी आत्मौदात्त्य की सिद्धि के लिए संघर्ष करना पड़ता है और लम्बे संघर्ष के माध्यम से ही उन्हें भी पुरुषार्थ की सिद्धि मिली है। कथासूत्र का क्रमश: विभिन्न खण्डों में विकास होता गया है । माटी कुम्भाकार परिणाम ग्रहण करती हुई सद्गुरु कुम्भकार के निर्देशन में स्वयं तो आत्मलाभ करती ही है, उपासक सेठ और उसके पारिवारिक सदस्यों को विभिन्न संघर्षों के बीच से निकालती हुई भव-सरिता के पार लगा देती है। माटी अपनी निरीहता और लघुता में भी अपरिमेय सम्भावनाओं से मण्डित है। कथा का मुख्य प्रयोजन 'मुक्ति' लाभ है । प्रसंगत: उसमें रोचक ढंग से साधक और बाधक तत्त्वों का विधान हुआ है । जितने परीषह और उपसर्गों को कुम्भ को पार करना पड़ता है उससे भी अधिक सेठ के सत् संकल्पी परिवार को । कुम्भाकार परिणत माटी की महिमा और उदात्तता आत्ममुक्ति में ही नहीं, तीर्थंकरों की भाँति पर-मुक्ति में भी स्पष्ट है । मतलब कथा का लक्ष्य आत्ममुक्ति से आगे बढ़कर पर-मुक्ति तक जाता है। माटी की सम्भावना यहाँ जाकर उपलब्धि का आकार ग्रहण करती है । इस प्रकार इसकी कथावस्तु और उसका सम्बन्ध निर्वाह अत्यन्त सुसंश्लिष्ट है-मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण-जैसी सन्धियों का भी अनुसन्धान किया गया है। सरिता के तट से आरब्ध कथा सरिता के तट पर ही अपनी वृत्ताकार समग्रता में सम्पन्न होती है। सन्धियों में 'अवस्थाएँ' और 'अर्थप्रकृतियाँ' भी समाहित होती ही हैं, उनका भी यथायोग्य आभास पाया जा सकता है। (ख) वर्णन तत्त्व
महाकाव्यों के लक्षणों में वर्णनों का बड़ा उपयोग है । इससे कथाधारा में घनता और रोचकता द्वारा सरस प्रभाव पैदा किया जाता है। परम्पराप्रतिष्ठ ऐसा कोई भी महाकाव्य नहीं मिलेगा जिसमें वर्णनव्यापारों की प्रचुरता न हो । लक्षण ग्रन्थों में कहा गया है :
“सन्ध्यासूर्येन्दुरजनीप्रदोषध्वान्तवासराः । प्रातर्मध्याह्नमृगयाशैलर्तुवनसागराः॥ सम्भोगविप्रलम्भौ च मुनिस्वर्गपुराध्वराः । रणप्रयाणोपयममन्त्रपुत्रोदयादयः ॥
वर्णनीया यथायोगं सांगोपांगा अमी इह ।" (साहित्यदर्पण, प. प.) प्रस्तुत कृति में भी प्रात:, सरिता, शिल्पी, ऋतु - शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, कुम्भ, सूर्य, चन्द्र, सेठ आदि पात्रों की मनोदशाओं का कल्पनाप्रवण धारावाहिक वर्णन प्रचुरता से उपलब्ध है । 'रामायण' और 'महाभारत' वर्णनों और उपाख्यानों से आद्यन्तपूरित हैं और परवर्ती कलात्मक महाकाव्यों में उक्त प्रकार के वर्णन भरे पड़े हैं, उपाख्यानों के लिए वह विराट् परिवेश शेष भी नहीं रहा । आलोच्य कृति में ये वर्णनात्मक प्रसंग थोपे हुए से नहीं लगते, जैसे माघ के 'रैवतक' वर्णन में सर्ग ही समाप्त हो गया है, 'किरातार्जुनीयम्' में ऋतु, शैल, विलास, सन्ध्या, प्रात: आदि का वर्णन कथासूत्र को व्यवहित करते हैं। नैषधीयचरित' का तो कहना ही क्या है, वर्णन में उनकी प्रातिभ सम्भावना लगता है नि:शेष ही नहीं होती। कालिदास सावधान हैं। वर्णन वह भी करते हैं, पर कथाधारा के अंग रूप में । उनका वर्णन ऐसा
लगता कि कथाधारा को रोककर वर्णन में ही डब गई है। उन्हें अवयव संगति का ध्यान है। ठीक यही स्थिति इस महाकाव्य की भी है । अवान्तर प्रसंगों की उद्भावना कम नहीं है, पर्याप्त है, पर कथा के धाराप्रवाह को वे विच्छिन्न नहीं, सघन बनाते हैं। आरम्भ में प्रात: का ही रमणीय वर्णन माटी के आँख खोलने की पीठिका है। सरिता का वर्णन