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8 :: मूकमाटी-मीमांसा
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'दया - धर्म का मूल है' / लिखा मिलता है // किन्तु, कृपाण कृपालु नहीं हैं / वे स्वयं कहते हैं
हम हैं कृपाण / हम में कृपा न !" (पृ. ७३)
"जहाँ कहीं भी देखा / महि में महिमा हिम की महकी ।" (पृ. ९१ ) "मन के गुलाम मानव की / जो कामवृत्ति है / तामसता काय-रता है वही सही मायने में / भीतरी कायरता है !" (पृ. ९४)
इस प्रकार शब्द प्रयोग के चमत्कार, लय की उदात्तता, ओजस्विता और माधुर्य तथा बिम्बों की सटीक सार्थकता के साथ यह काव्य आद्योपान्त मन को चुम्बक की तरह तल्लीन रखने वाला है तथा जीवन को अनुभवों और मानवीय मूल्यों से पूर्णत: सम्पृक्त करता रहता है ।
इस काव्य में आद्योपान्त धरती की गरिमा और माटी की महिमा का वर्णन है । कवि के शब्दों में :
"धरती की धवलिम कीर्ति वह / चन्द्रमा की चन्द्रिका को लजाती-सी दशों दिशाओं को चीरती हुई / और बढ़ती जा रही है सीमातीत शून्याकाश में ।” (पृ. २२२)
इसी धरती पर शूरवीर, श्रीमान्, धीर, सन्त, ऋषि, गृहस्थ, प्रबुद्ध जन उत्पन्न होते हैं । यहीं तरु-लता किसलय-फूल और फलों की समृद्धि होती है । पर्वत, नदी, सरोवर आदि इसी पर हैं । अन्न, धान और मणि - माणिक्य इस धरती की उपज हैं। अत: वह धरती धन्य है। माटी भी इसी का अंग है जिसकी अपार महिमा है। माटी की गोद में ही अन्न, धान्य, फूल, फल तथा अनेक प्रकार के जीव-जन्तु पलते हैं। माटी में सर्जना की अनन्त सम्भावनाएँ हैं । इसका द्रव्य से नहीं, गुण और धर्म से आँका जा सकता है जिसमें माटी हर तरह से महान् और गरिमामयी है । इस प्रकार माटी की महिमा और कुम्भ के मंगलवाक्यों के साथ ग्रन्थ का उपसंहार होता है। यह सब बड़ा प्रेरक एवं मांगलिक है।
पृष्ठ ७१ उसे
नूतन जाल- बन्धनकाल के गाल में कवलित होंगे हम !
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