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मूकमाटी-मीमांसा :: 15
अभेद है, साथ ही मृण्मय से चिन्मय तक की महायात्रा की व्यंजना भी उसमें निहित है । अत: नायक रूप में घट की परिकल्पना होने पर भी 'मूकमाटी' से उसकी आरम्भिक दयनीयता तथा तुच्छता व्यक्त होती है, साथ ही अपरिमेय सम्भावना भी, ऊर्ध्वगामिनी मोक्षात्मक सम्भावना भी । अतः एक साथ बद्ध जीव की सारी विशेषताओं की समाहिति 'मूकमाटी' शीर्षक में हो जाती है । नायक वो घटाकार उसका परिणमन है । अ-जीव को प्रतीक बनाने से उसकी एक व्यंजना यह भी है कि उसमें प्रदूषण नहीं होता, प्रदूषण की सम्भावना भी नहीं होती। कुछ लोग 'माटी' में नायिका की और ‘कुम्भकार' में नायक की परिकल्पना करते हैं और माटी गर्भस्थ घट के परिणमन में कुम्भकार की नायक-सी प्रतीक्षा करती है । इनका परस्पर आकर्षण वासनापंकिल लौकिक शृंगार का नहीं, लोकोत्तर उपकार की आभा देता है। इस प्रकार थोड़ी देर के लिए नायक-नायिका का रूपक तो बन जाता है, पर " फलभोक्ता तु नायक :" की परिभाषा का क्या होगा? फल 'स्वभाव -लाभ' ही है, जो घट रूप साधक को ही मिलता है। माटी का सांकर्यशोधित रूप घट ही है, तप वही तपता है । वर्णलाभ वही करता है। राख का आवरण हटाकर वही ऊपर आता है, समर्पित वही होता है । बन्धन में वही प्रसुप्तप्राय आकारहीन पड़ा रहता है, सद्गुरु कुम्भकार न केवल उसे आकार देता है बल्कि पात्रता भी प्रदान करता है । यह पात्रता ही सम्भावना को उपलब्धि का आकार देती है ।
“बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का / आमूल मिट जाना ही / मोक्ष है । इसी की शुद्ध - दशा में / अविनश्वर सुख होता है।” (पृ. ४८६)
जीव-अजीव के बन्ध से मुक्त नवनीतकल्प स्वभाव पुन: उस दुग्धकल्प बन्ध में नहीं जा सकता। इस फल का प्रापक घट रूप जीव ही है । अत: माटी से अभिन्न किन्तु पर्याय से भिन्न घट ही इस कृति का नायक जान पड़ता है । मूकमाटी में वही समाया हुआ है। घट मूकमाटी की ही सम्भावना है। भाव व्यंजना, संवाद योजना और वर्णनों का प्राचुर्य विद्यमान है । कथावस्तु में साधक-बाधक तत्त्वों के विधान द्वारा सन्धियों की योजना भी सम्भावित है । इसी प्रकार कतिपय औपचारिक और बहिरंग तत्त्वों को छोड़ भी दिया जाय तो इसकी महाकाव्यात्मकता असन्दिग्ध है ।
'मूकमाटी' का संस्कृत महाकाव्यों से तुलनात्मक अनुशीलन
भारतीय काव्यों को दृष्टिगतकर काव्यशास्त्रियों ने इस तथ्य में अपनी सहमति व्यक्त की है कि यहाँ काव्य का प्रयोजन कुतूहलतृप्ति और मनोरंजन नहीं है अपितु 'व्युत्पत्ति' और 'प्रीति' (मनोरमण = = स्व-पर-भाव- विनिर्मुक्तग्रहणशील चेतना का परकीय सुख-दु:ख अनुभूति में आत्मविस्तार प्राप्त करना = मानुष भाव का विस्तार करना) है । आचार्य अभिनवगुप्तपाद ने इनका समन्वय करते हुए कहा है कि मूल प्रयोजन तो 'प्रीति' ही है, 'व्युत्पत्ति' का लाभ
अनुषंगत हो ही जाता है। काव्य इस प्रकार पाठक की चेतना का समुन्नयन करता है । उसकी नीयत यही है । यह बात दूसरी है कि इस नीयत का कार्यान्वयन भले ही वह विधेय और निषेध्य के वर्णन द्वारा करता हो । काव्य इस प्रकार सम्पूर्ण जीवन 'सर्जना की परिधि में गहराई से आत्मसात् कर लेता है ।
इस सन्दर्भ में हम आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण को ही लें । रचयिता वाल्मीकि किसी ऐसे नायक की खोज में है जो मानवीय मूल्यों की साकार प्रतिमा हो । वह नारद से पूछता है :
“कोऽन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान् । धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः ॥
चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः ।
विद्वान् कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः || ” (१/२-३)