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मूकमाटी-मीमांसा :: 13 “भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। रामनाम बिनु सोह न सोऊ ॥" तुलसी की दृष्टि में वह 'सोह' - शोभा या चारुता, जो उनके लिए काव्योचित है - 'सुकवि कृत भनितिविचित्र' मात्र से नहीं आती, उसके लिए राम नाम' अर्थात् आध्यात्मिक चेतना से मण्डित होना अनिवार्य है । शुद्ध साहित्यिक आचार्य कुन्तक और सन्त आचार्य गोस्वामीजी की काव्य सम्बन्धी मूल चेतना में यह अन्तर रेखांकनीय है। 'मूकमाटी' का कर्त्ता या स्रष्टा भी अपनी साहित्य सम्बन्धी अवधारणा स्पष्ट करता हुआ सन्त साहित्यकारों की परम्परा में बोलता है :
"शिल्पी के शिल्पक साँचे में/साहित्य शब्द ढलता-सा! 'हित से जो युक्त - समन्वित होता है/वह सहित माना है/और सहित का भाव ही/साहित्य बाना है,/अर्थ यह हुआ कि जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव - सम्पादन हो सही साहित्य वही है/अन्यथा,/सुरभि से विरहित पुष्प-सम
सुख का राहित्य है वह/सार-शून्य शब्द-झुण्ड..!" (पृ. ११०-१११) गोस्वामीजी की भाँति मुनिवर्य ने भी साहित्य की अपनी अवधारणा स्पष्ट की है। उन्होंने माना है कि 'सहित का भाव' ही 'सहभाव' या 'साहित्य' है । सहित अर्थात् हित-सहित । 'हित', 'सुख का समुद्भव है, विभाव-रहित 'स्वभाव' का साक्षात्कार है, सुखास्वाद है । यही हमारा गन्तव्य है, मंज़िल है। काव्य या साहित्य भी एक प्रस्थान है जो हमें वहीं ले जाता है। हमारे जीवन, चिन्तन और आचरणमय जीवन का यही नियन्त्रण कक्ष है। हमारे सारे व्यापार इसी नियन्त्रण कक्ष से परिचालित होते हैं । इस गन्तव्य तक ले जाने वाले हमारे कुछ सिद्धान्त सूत्र हैं, मूल्य हैं। प्रस्तुत कृति उनका उद्घाटन काव्यात्मक भाषा में करती है, रोचक कथा के माध्यम से करती है, आकर्षक, घटना और संवादों से उजागर करती है । आनन्दवर्धनाचार्य ने रामायण और महाभारत को 'शास्त्र' भी कहा है और 'काव्य' भी। उनका कहना है :
"तदेवमनक्रमणीनिर्दिष्टेन वाक्येन भगवदव्यतिरेकिण: सर्वस्यान्यस्यानित्यतां प्रकाशयता मोक्षलक्षण एवैक: पर: पुरुषार्थ: शास्त्रनये, काव्यनये च तृष्णाक्षयसुखपरिपोषलक्षणः शान्तो रसो महाभारतस्याङ्गित्वेन विवक्षित इति सुप्रतिपादितम्।' (ध्वन्यालोक, चतुर्थ उद्योत, पृ. ३४८) अर्थात् महाभारत शास्त्र भी है और महाकाव्य भी। शास्त्र की दृष्टि से उसमें बताया गया है कि आत्मभिन्न सब कुछ निस्सार है। परम पुरुषार्थ सुख स्वभाव मोक्षलक्षण पुरुषार्थ ही है। जहाँ तक उसके काव्य होने का सम्बन्ध है, इस महाभारत नामक महाकाव्य का अंगीरस शान्त है । यह समस्ततृष्णाक्षयसुखात्मा है। ठीक यही नय 'मूकमाटी' पर भी लागू होता है । शास्त्र की दृष्टि से इसका प्रयोजन 'मोक्ष' है और काव्य की दृष्टि से शान्त रस' । परमात्मा स्वरूप सद्गुरु के प्रति समर्पण से ही मुक्ति का द्वार अनावृत होता है। कुम्भकार और सेठ द्वारा मूकमाटी में से आकार ग्रहण कर वर्णलाभ करने वाला साधक घट गुरुचरणों में समर्पित होकर आत्ममुक्ति लाभ करता है। आकार लाभ और आत्ममुक्ति की महायात्रा में आने वाली समस्त भौतिक बाधाएँ त्याज्य और अनुपादेय हैं। उनके प्रति कषाय का क्षयोपशम ही अपेक्षित है। कारण, वे वस्तुएँ और उनका परिचालक भाव लोकध्वंस और आत्मध्वंस की ओर ले जाता है । आलोच्य कृति में ये सारी बातें स्पष्ट हैं । इस प्रकार इस कृति में हित का सहभाव या साहित्य आमूलचूल विद्यमान है। यह एक वीतराग मुनि की कृति है, अत: लौकिक राग का वह सद्भाव नहीं है जो अन्यत्र रागी सर्जक में सम्भव है । पर इसका मलतब यह नहीं कि सात्त्विक सौन्दर्य जो प्रकृति में परिव्याप्त है, मानवीय कर्म और भाव में व्याप्त है, वह भी यहाँ अविद्यमान है, नहीं ; वह तो है ही । साहित्य की चारुता अ-व्यक्तिगत और अ-पार्थिव होती है । चारुता की अनुभूति ही सर्जनात्मक अनुभूति है और वैसी सात्त्विक चारुता की अनुभूति से स्नात होकर निर्गत