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lviii :: मूकमाटी-मीमांसा
“छने जल से कुम्भ को भर कर / आगे बढ़ा कि / वही पुराना स्थान जहाँ माटी लेने आया है / शिल्पी कुम्भकार वह !
परिवार - सहित कुम्भ ने / कुम्भकार का अभिवादन किया ।" (पृ. ४८१ )
पुरुष को पराभव महसूस हो और चेहरा विवर्ण या अधोमुख हो जाय तो जो मनोदशा होती है, उसे 'व्रीडा' कहते हैं । कुम्भकार के प्रांगण में मेघ - मुक्ता की ओर लपकती मण्डली और राजा को देख कुम्भ व्यंग्य कसता है, पर कुम्भकार उसके बड़बोलेपन पर प्रताड़ित करता है । तब कुम्भ को अपने किए पर 'व्रीडा' होती है :
" कुम्भकार ने कुम्भ की ओर / बंकिम दृष्टिपात किया ! आत्म-वेदी, पर मर्मभेदी / काल - मधुर, पर आज कटुक कुम्भ के कथन को विराम मिले / ... किसी भाँति, / और
राजा के प्रति सदाशय व्यक्त हो अपना / इसी आशय से ।” (पृ. २१८)
'धृति' वह मनोदशा है जिससे लोभ, शोक, भय आदि से प्रसूत क्षोभ का निवारण हो जाता है । इसमें विवेक, शास्त्र ज्ञान आदि विभाव होते हैं व चापल्य आदि का उपशम अनुभाव । घट की महायात्रा में ऐसे अनेक क्षण आते हैं जब वह उपसर्ग और परीषहों को धृतिपूर्वक सहन करता है । तपन, सागर की ओर से प्रेषित बदली, बादल तथा अन्तिम खण्ड में आतंकवादियों का आक्रमण - ऐसी अनेक भयावह घटनाएँ हैं जिनमें धृतिपूर्वक घट यात्रा तय करता है। स्वयं भी विवेकप्रसूत धृति धारण करता है और सपरिवार सेठ को भी साहस तथा धृति प्रदान करता है।
“ऊपर घटती इस घटना का अवलोकन/खुली आँखों से कुम्भ - समूह भी कर रहा । पर,/कुम्भ के मुख पर/भीति की लहर - वैषम्य नहीं है । " (पृ. २५१)
'मति' का तो आगर है यह घट । मति वह मनोदशा है जो अर्थ का निर्धारण करती है और इस निर्धारण के पीछे शास्त्रीय विचार काम करते हैं । शंकाहीनता तथा संशय का उच्छेद आदि अनुभाव होता है । कठिन समय में शीघ्र निर्णय मति से होता है । इस प्रकार शान्त रस के पोषक - उपायावस्था के पोषक - साधनों का सम्यक् उपयोग हुआ है । व्यभिचारी भावों की पुष्कल अभिव्यंजना हुई है ।
में
महाकाव्य के पारम्परिक साँचे में यह भी कहा गया है कि यहाँ एक अंगी रस तो होना ही चाहिए, अंग रूप अन्य रसों का भी प्रयोग हो सकता है। अंग रूप में व्यंजित रस अपरिपुष्ट होते हैं। फलतः उन्हें औपचारिक रूप में ही रस कहा जाता है । अतिरिक्त अंग रूप रसों के स्थायीभाव व्यभिचारी भाव ही होते हैं ।
आलोच्य कृति के दूसरे खण्ड में, जहाँ माटी का रौंदा जाना आरम्भ हुआ है - वहाँ, प्रसंगवश प्रायः नवों रसों की बात आई है । इन रसों की सत्ता तदनुरूप विभाव और अनुभावों की योजना से मूर्त हुई है। पर जैसा कि उपदेशपरक और विचारपरक इस कृति की प्रकृति रही है, ऐसे प्रसंग भी प्रकृति से प्रभावित हुए हैं। आश्रय और आलम्बन प्राय: यहाँ भी अचेतन हैं । फलत: अंगीभूत संवेदना का जिस तरह अंग बनकर इन्हें आना चाहिए, वैसे नहीं आ पाए हैं।
वीर रस
शिल्पी के आजानु पद से माटी लिपटी हुई है और लिपटन की इस क्रिया में महासत्ता माटी की बाहुओं से 'वीर रस फूट रहा है और कह रहा है शिल्पी से वह अपनी विजय कामना की पूर्ति के लिए प्याला भर-भर कर पी ले। परन्तु शिल्पी का वीर्य उसको फटकारता है और सीख देता है कि विजय आग से नहीं पानी से शान्त रस की महायात्रा में