Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका १ और उसका समाधान
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प्राणसंरक्षकताके रूपमें अन्नका महत्त्व प्रस्थापित करना ही प्रयोजन है। इसी प्रकार बालकमें सिंहका उपचार करनेके लिए बालकम पाया जानेवाला सिंह सदशौर्गही निमित्त है और इस तरह सिंहके सदश शौर्य गुण संपन्नताके रूपमें बालककी प्रसिद्धि करना ही प्रयोजन है। इस तरह निर्मिस और प्रयोजनका सदभाव रहते हुए ही अन्नमें प्राणोंका तथा बालकमें सिंहका उपचार किया गया है । इसी प्रकार आगम में भी उपचार प्रवृत्तिके दृष्टान्त उपलब्ध होते हैं। जैसे परार्थानुमान यद्यपि ज्ञानात्मक ही है, परन्तु उसका उपचार वचनमें किया गया है, क्योंकि वचन ज्ञानरूप परार्थानुमानका कारण होता है ।
तद्वचनमपि तद्धेतुत्वादिति । -परीक्षामुखसूत्र ३-५६ यहाँपर कारणमें कार्यका उपचार किया गया है । इसमें भी उपचार प्रवृत्ति के लिए निमित्त और प्रयोजनका सद्भाव है। इन सब दृष्टान्तोंके आधारपर प्रकृतमें हमारा आपसे यह कहना है कि निमित्त नामकी वस्तुमें कारणत्व वा वर्तृत्वका जब आपको उपचार करना है तो इस उपचार प्रवृत्तिके लिए यहाँपर निमित्त तथा प्रयोजनके सदभावकी भी आपको खोज करनी होगी, जिराका ! निमिन नथा प्रयोजनक सद्भावका ) यहाँपर सर्वथा अभाव है। यदि आपकी दृष्टि में निमित्तमें कारणता या कर रखका उपनार करने के लिए यहाँपर निमित्त तथा प्रयोजनका सद्भाव हो, तो बतलाना चाहिए। यदि आप कहें कि कार्य के प्रति निमित्त नामकी वस्तुका जो उपादान के लिए सह्योग अपेक्षित रहता है यही महापर उपचार प्रवृत्तिमें निमित्त है और इस तरह कार्य के प्रति मिमिन नामकी वस्तु की उपयोगिताको लोकमें प्रस्थापित कर देना ही प्रयोजन है तो इस विषय में हम आपसे केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि निभिसका कार्यके प्रति उपादानको सहयोग देना यदि आपको मान्य हो जाता है तो इससे फिर निमित्तकी वास्तविकता ही सिद्ध हो जाती है। ऐसी हालतमें ससे उपचरित कैसे कहा जा सकता है ?
'उपान्दीयते अनेग' इस विग्रहके आधारपर 'उप' उपसर्गपूर्वक आदानार्थका 'आ' उपसर्ग विशिष्ट 'दा' धातुसे कर्ताके अर्थ में "ल्युट' प्रत्यय होकर उपादान शब्द निम्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ यह होता है कि जो परिणमनको स्वीकार करे, ग्रहण करे या जिसमें परिणमन हो उसे उपादान कहते है। इस तरह उपादान कार्यका आश्रय ठहरता है। इसी प्रकार निर्मद्यति' इस विग्रहः आधारपर 'नि' उपसर्ग पूर्वक स्नेहार्थक 'मिद' धातुसे ककि अर्थमें 'क्त' प्रत्यय होकर निमित्त शब्द निष्पन्न हुआ है। मित्र शब्द भी इसो 'मिद्' पातुरो 'क्र' प्रत्यय होकर बना है । इस प्रकार जो मित्र के समान उपादानका स्नेह न करे अर्थात् उसकी कार्यपरिणतिमें जो मित्रके रामान सहयोगी हो वह निमित्त कहलाता है । इस विवेचनरो यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि कार्य के प्रति निमित्त उपचरित ( काल्पनिक ) नहीं है, बल्कि उपादानके सहयोगीके रूपमें वह वास्तविक ही है।
इस प्रकार आगममें जहाँ भी निमित्त मित्तिकभावको लेकर उपचारहेतु या उपचारकर्ता, व्यवहारहेतु या व्यवहारकर्ता, बाह्य हेतु या बाह्य कर्ता, गौण हेतु या गौण कर्ता आदि घाब्दप्रयोग पाये जाते हैं उन सबका अर्थ निमित्तकारण (महकारी कारण) या निमित्तका (सहकारी कर्ता) ही करना चाहिए। उनका आरोपित हेतु (काल्पनिक हेतु) या आरोपित कर्ता (काल्पनिक कर्ता) अर्थ करना असंगत ही जानना चाहिए । इसी प्रकार आगममें जहाँ भी उपादानोपादेयभावको लेकर परमार्थ हेतु या परमार्थ का, निश्चय हत या निश्चय कर्ता, अन्तरंग हेतु या अन्तरंग कर्ता, मुख्य हेतु या मुख्य कर्ता आदि शब्दप्रयोग पाये जाते है उन सबका अर्थ उपादान कारण या अपादान कर्ता ही करना चाहिए। इसका कारण यह है कि कार्यकरणत्वको