________________
३८
जन लक्षणावली
त. भाष्य (६-१८) की हरिभद्र व सिद्धसेन विरचित वृत्तियों में तथा अनुयोगद्वार की हरिभद्र विरचित वृत्ति में (पृ. १०३) में पूर्वोक्त त. वार्तिक के समान समस्त सावध योग से विरत होने को सामायिक कहा गया है
या है। इसके पूर्व उस अनुयोगद्वार की हरि. वृत्ति (पृ. २६) और आवश्यक सूत्र (६,६,पृ. ८३१) की भी हरि. वत्ति में पूर्वोक्त विशेषावश्यकभाष्य के समान निरुक्त्यर्थ को भी प्रगट किया गया है। इसी अभिप्राय को हरिभद्र सूरि ने अपने पंचाशक (४६६) में भी संक्षेप में व्यक्त किया है। श्रावकप्रज्ञप्ति (२६२) में शिक्षाव्रत के प्रसंग में पूर्वोक्त अावश्यकसूत्र के समान सावध योग के परित्याग और निरवद्य योग के प्रासेवन को सामायिक का लक्षण प्रगट किया गया है। इसकी टीका में हरिभद्र सूरिने 'एत्थ पुण सामायारी' ऐसा निदश करते हुए श्रावक को सामायिक कहां, कब और किस प्रकार से करना चाहिए; इत्यादि बातों का स्पष्टीकरण करते हुए ऋद्धि प्राप्त और अन द्धिप्राप्त इन दो प्रकार के श्रावकों के प्राश्रय से विचार अभिव्यक्त किया है। तत्पश्चात् यहां यह शंका उठाई गई है कि सामायिक में अधिष्ठित श्रावक जब साधु ही होता है तब वह उतने काल के लिए पूर्ण रूप से समस्त सावध योग का परित्याग मन, वचन व काय से क्या नहीं करता है ? करता ही है । इस शंका के समाधान में वहां श्रावक के लिए मन, वदन व काय से पूर्णतया उस समस्त सावध योग के परित्याग को असम्भव बतलाकर साधु और श्रावक इन दोनों में अनुमति की प्रधानता से दो प्रकार की शिक्षा, गाथा (सामाइयंमि उ कए . .॥२६६), उपपात, स्थिति, गति, कषाय, बन्ध, उदय, प्रतिपत्ति और अतिक्रम इन अधिकारों के श्राश्रय से भेद प्रगट किया गया है (श्रा, प्र. २६३-३११)।
वरांगचरित (१५, १२१-२२) में शिक्षाव्रत के प्रसंग में सामायिक के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि व्रत की वृद्धि के लिए निरन्तर दोनों सन्ध्याकालों में नमस्कारपूर्वक हृदय में शरण, उत्तम और मांगल्य इनका ध्यान करना चाहिए। सब जीवों में समता--राग-द्वष का अभाव, संयम, उत्तम भावनाएं और प्रार्त-रौद्र रूप दुानों का परित्याग ; यह सामायिक शिक्षाव्रत का लक्षण है। जयधवला (१, पृ. ६८) के अनुसार तीनों सन्ध्याकालों में, अथवा पक्ष, मास व सन्धिदिनों में, अथवा अपने अभीष्ट समयों में बाह्य और अभ्यन्तर समस्त पदार्थविषयक जो कषाय का निरोध किया जाता है उसका नाम सामायिक है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा (३५६-५७) में कहा गया है कि जो पल्यंक प्रासन बांधकर अथवा खड़ा होकर काल के प्रमाण को करके इन्द्रियों के व्यापार से रहित होता हुआ जिनागम में मन को लीन करता है तथा शरीर को स्थिर रखता हुआ अंजलिपूर्वक-मुकुलित दोनों हाथों के साथ-प्रात्मस्वरूप में लीन होता है व वन्दना के अर्थ का चिन्तन करता है। इस प्रकार से जो देश प्रमाण को करके सामायिक को करता है वह तब तक के लिए मुनि जैसा होता है। सागारधर्मामृत (५-२८) में सामायिक शिक्षाव्रत के स्वरूप को दिखलाते हुए कहा गया है कि एकान्त स्थान में बालों के बन्धन आदि के छूटने तक मुनि के समान प्रात्मा का ध्यान करते हुए जो समस्त हिंसादि पापों का त्याग किया जाता है, यह सामायिक शिक्षावत का लक्षण है।
यहां सागारधर्मामत में जो बालों के बन्धन प्रादि के छूटने रूप समय का निर्देश किया गया है वह स्पष्टतया पूर्वोक्त रत्नकरण्डक (४-८) के आधार से किया गया है। पर जैसे रत्नकरण्डक मूल व उसकी प्रभाचन्द्र विरचित टीका में भी उसके अभिप्राय को स्पष्ट नहीं किया गया है वैसे ही इस सागारधर्मामत व उसकी स्वो. टीका में भी उसका कुछ स्पष्टीकरण नहीं किया गया। प्रकृत में 'समय' से काल अभिप्रेत है या प्राचारविशेष अभिप्रेत है, इसका स्पष्ट बोध नहीं होता। पूर्वोक्त कार्तिकेयानुप्रेक्षा (३५६) में भी जो 'बंधित्ता पज्जंक अहवा उड्ढेण उभयो ठिच्चा' यह कहा गया है वह भी पूर्वोक्त रत्नक. के 'पर्यङ्कवन्धनं चापि । स्थानमपवेशनं वा' से प्रभावित रहा ही प्रतीत होता है। पर यहां रत्नकरण्डक के 'मुर्द्धरुह-मष्टिवासोबन्धं' को सम्भवतः बुद्धिपुरस्सर छोड़ दिया गया है जबकि सागारधर्मामृत में 'केशबन्धादिमोक्ष' के रूप में उसे ग्रहण कर लिया गया है। पर उसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया।
इनके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में जो प्रकृत सामायिक का लक्षण उपलब्ध होता है उसमें नियमसार, मूलाचार, सवर्थसिद्धि, अथवा विशेषावश्यकभाष्य इनमें से किसी न किसीका अनसरण किया गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org