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प्रस्तावना
रत्नकरण्डक (४-७) में शिक्षाव्रत के प्रसंग में नियमित समय पर्यन्तांचों पापों के पूर्णतया परित्याग को सामायिक का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है । प्रागे यहां (४-८) उपर्युक्त समय को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि बालों के बन्धन, मुट्ठी के बन्धन और वस्त्र के बन्धन को अथवा स्थान ( कायोत्सर्ग) व उपबेशन को ग्रागम के ज्ञाता समय-काल प्रथवा माचार विशेष - जानते हैं । यहीं पर श्रागे (५-१८ ) तीसरी सामायिक प्रतिमा के प्रसंग में कहा गया है कि जो गृहस्थ यथाजात - बालक के समान दिगम्बर वेष में स्थित होकर अथवा समस्त प्रकार की परिग्रह की प्रोर से निर्ममत्व होकर-चार वार तीन-तीन श्रावर्त पूर्वक कायोत्सर्ग में स्थित होता हुआ चार प्रणाम करता है तथा दो उपवेशन से युक्त होकर तीनों योगों से शुद्ध होता हु तीनों सन्ध्याकालों में देववन्दना किया करता है उसे सामयिक -- तीसरी सामायिक प्रतिमा का धारक श्रावक — जानना चाहिए ।
सर्वार्थसिद्धि (७-२१) में शिक्षाव्रतों के प्रसंग में निरुक्तिपूर्वक सामायिक के लक्षण को दिखलाते हुए कहा गया है कि 'सम्' का अर्थ एकीभाव और 'अय' का अर्थ गमन है, तदनुसार एकीभाव स्वरूप से जो गमन ( प्रवृत्ति) होता है उसका नाम समय है और उस समय को ही सामायिक कहा जाता है । अथवा 'समयः प्रयोजनमस्येति वा विगृह्य सामायिकम्' इस प्रकार के विग्रहपूर्वक यह भी निर्देश किया गया है कि उक्त प्रकार का 'समय' हो जिसका प्रयोजन है उसे सामायिक जानना चाहिए। सर्वार्थसिद्धिगत इस लक्षण को कुछ स्पष्ट करते हुए तत्त्वार्थवार्तिक (७, २१, ६) में कहा गया है कि प्रतिनियत काय, वचन और मन की क्रिया रूप पर्याय से निवृत्त होकर द्रव्यार्थस्वरूप से जो आत्मा का एकीभाव (अभिन्नता) को प्राप्त होना है, यह सामायिक का लक्षण है । सर्वार्थसिद्धिगत शेष सभी अभिप्राय को यहां प्रायः शब्दशः आत्मसात् किया गया है । आगे यहां चारित्र के प्रसंग में ( ६,१८,२) में कहा गया है कि समस्त सावद्य योग का जो अभेद रूप से हिंसा आदि भेदों के बिना - प्रत्याख्यान का आश्रय लेकर प्रवृत्त होता है, इसका नाम सामायिक चारित्र । सर्वार्थसिद्धि (E-१८) में इस सामायिक को नियतकाल और अनियतकाल के भेद से दो प्रकार कहा गया है । इनमें स्वाध्यायादि रूप सामायिक को नियतकालिक और ईर्यापथ आदि रूप सामायिक को अनियतकालिक जानना चाहिए ।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ( ७ - १६) में शिक्षाव्रत के प्रसंग में कहा गया है कि कालका नियम करके जो तब तक के लिए समस्त सावद्य योग का परित्याग किया जाता है उसे सामायिक कहते हैं। प्रकृत त. भा. (६.१८) में चारित्र के प्रसंग में उस सामायिक संयम के नाम मात्र का निर्देश किया गया है, स्वरूप के सम्बन्ध में वहां कुछ नहीं कहा गया । श्रावश्यक सूत्र (प्र. ६) के अनुसार सावद्य योग के परित्याग और निरवद्य योग के प्रतिसेवन का नाम सामायिक है । आवश्यक भाष्य ( १४९ ) में कहा गया है कि सावद्य योग से विरत, तीन गुप्तियों से विभूषित, छह काय के जीवों के विषय में संयत - उन्हें पीड़ा न पहुंचाने वाला, उपयुक्त एवं प्रयत्नशील आत्मा ही सामायिक होता है (पूर्वोक्त नि. सा. गत पद्य १२५-२६ और श्राव. भाष्य का प्रकृत पद्य ये परस्पर एक-दूसरे से कुछ प्रभावित रहे प्रतीत होते हैं ) । विशेषावश्यकभाष्य (४२२०-२६) में सामायिक के लक्षण का निर्देश निरुक्तिपूर्वक अनेक प्रकार से किया गया है । यथा - 'सम' का अर्थ राग-द्वेष से रहित और 'अय' का अर्थ गमन है, इस प्रकार समगमनका नाम 'समाय' और यह समाय ही सामायिक है । अथवा उक्त 'समाय' में होनेवाली, उससे निर्वृत्त, तन्मय अथवा उक्त प्रयोजनन की साधक सामायिक जानना चाहिए। अथवा 'सम' से सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र
अभिप्र ेत ; उनके विषय
में या उनके द्वारा जो अय-गमन या प्रवर्तन है— उसका नाम 'समय' और उस समय को ही सामायिक कहा जाता है । अथवा समके-राग-द्वेष से रहित जीव के जो प्राय - गुणों की प्राप्ति होती है-उसका नाम समय है, अथवा समों का सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र का - जो प्राय (लाभ) है उसे सामायिक जानना चाहिए । अथवा 'साम' का अर्थ मैत्रीभाव और 'अय' का अर्थ गमन है, इस प्रकार उस मैत्रीभाव में या उसके द्वारा जो प्रवृत्ति होती है उसे सामायिक कहा जाता है । अथवा उक्त मैत्रीभावरूप जो साम है उसके प्राय (लाभ) को सामायिक जानना चाहिए। इस प्रकार यहां सामायिक शब्द की निष्पत्ति की प्रमुखता से अर्थ को बैठाया गया है।
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