Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
wwwww
Jain Education International
जिन सुर पादप पाय वखाणु, सांख्य जोग दोय भेदे रे,
आत्म-सत्ता वित्ररण करता, लहो दुग अंग अखेदे रे - षड्० मेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दोष कर भारी रे, लोकालोक अवलंबन भजिये, गुरुनमधी अवधारी रेष लोकायतिक कूख जिनवरनी, अंश विचार जो कीजे रे, तव - विचार जो कीजे रे, गुरुगमविण किम पीजे रे-षडू० जैन जिनेश्वर वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे,
अक्षर न्यास धरा आराधक, श्राराधे घरी संगे रे - षड्० जिनवरमा सघळा दर्शन छे, दर्शन जिनवर भजना रे,
सागरमा रुघळी तटिनी सही, तटिनीमां सागर भजना रे–षड्० जिनस्वरूप थइ जिन श्राराधे, ते सही जिनवर होवे रे,
भृंगी इलिकाने पटकावे, तेगी जन जोये रेप० पूर्ण भाग्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परम्पर अनुभव रे, समय- पुरुषना अंग कह्यां ए, जे छेदे ते दुर्लभ रे - षड्० मुद्रा बीजधारणा अक्षर, न्यास अर्थं विनियोगे रे,
जे ध्यावे ते नवि वंचीजे, क्रिया अवंचक भोगे रे – पड़० श्रुत अनुसार विचारो बोलु सुगुरु तथाविध न मिले रे, किरिया करी नाव साधि शकीये, ए विषवाद चित्त सघळे रे - षड्०
pooto to lotoja
ते माटे उभो कर जोडी, जिनवर आगल कहिये रे, समय चरण सेवा शुद्ध देजो, जिम 'आनन्दवन' लहिये रे - षड्०
( निद्रडी वेरण हुइ रही -- यह देशी ) प्रीतड़ी, किंम कीजे हो कहो चतुर विचार,
प्रभुजी जइ अळगा वस्या, तिहां को नवि हो कोई वचन उच्चार | कागळ पण पहोंचे नहि, नवि पहोंचे हो तिहां को परधान
लोकोत्तर माग ।
जे पहोंचे ते तुम समो, नवि भाखे हो कीनो व्यवधान | प्रीति करे ते गिया, जिन-रजी हो तुमे तो वीतराग, प्रीतड़ी जेह रागीथी, मेलववी ते हो प्रीति श्रनादिनी विष भरी, ते रीते हो करवा मुज भाव, करवो निर्विष प्रीतड़ी, किए भांते हो कहो बने बनाव थकी, जे तोड़े हो से जोड़े एड,
पुरुषथी रागता, एकता हो दाखी गुण गेह । निजप्रभुता हो प्रगटे गुणराश,
'देवचन्द्र' नी सेवना, आपे मुजे हो अविचल सुखवास ।
ऋषभ जिणंदसु
मुनि श्री मिश्रीमल 'मधुकर': जीवन-वृत्त: ५७
प्रीति अनंती पर परम प्रभु जीने अवलम्बतां
odioto alol
For Private & Personal Use Only
alolololololol
*******************
www.jainelibrary.org