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रही थी और ऐसा लग रहा था मानो पृथ्वी आग उगल रही है। ऐसे में आचार्यश्री चतुर्विध संघ के साथ विचरण करते हुए आबू पहुंचे। आबू के पहाड़ से उतर कर वे संघ के साथ नीचे की ओर आ रहे थे। भीषण गर्मी में ७-८ मील लगातार चलने से श्रावकश्राविकाओं का गला सूख गया और वे पानी के लिए अत्यधिक व्याकुल हो गए। किन्तु उस रेगिस्तान में पानी का कहीं भी नामनिशान तक नहीं था। एक भक्त तो प्यास से पीड़ित होकर आचार्यश्री के कमंडलु में शुद्धि के निमित्त रखा सारा जल ही पी गया। ऐसी परिस्थिति में श्रावक-श्राविकाओं ने महाराजश्री से अनुरोध किया कि वे अब आगे विहार न कर थोड़ी देर के लिए विश्राम करें। उन्होंने गर्मी के कारण अपनी प्यासजन्य वेदना की दुःखभरी गाथा उनके समक्ष निवेदन की।
भक्तों की प्रार्थना सुनकर महाराजश्री द्रवित हो गए। उन्होंने अपने आराध्य देव का स्मरण किया और कहा कि, "यह दस कदम पर जो पत्थर पड़ा है इसे थोड़ा-सा अलग तो करो।" श्रावकों ने पत्थर को हटाया। उसी समय एक अद्भुत दृश्य उपस्थित हो गया । पृथ्वी के गर्भ से निर्मल जल का उत्स फूट पड़ा । सभी श्रावक-श्राविकाओं ने आचार्य श्री के तपोबल के वैभव से प्रकट हुए जलकुंड के गंगा सदृश जल का रसपान करके उत्साहपूर्वक आगे के लिए विहार कर दिया । नगर में हैजा एवं प्लेग का निवारण
कोल्हापूर के निकट राधापूरी ग्राम में भयंकर हैजा फैल गया था। संयोगवश आचार्यश्री पदयात्रा करते हुए उस ग्राम में पधारे । महामारी से पीड़ित व्यक्तियों ने उनके आगमन को एक मंगल अवसर जानकर आचार्यश्री से श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक निवेदन किया कि वे इस सर्वनाशी भयंकर रोग से गांव के प्राणियों की रक्षा करें। शरण में आए भक्तगणों को आचार्यश्री ने प्रसाद के रूप में अपने कमण्डलु का जल मन्त्र से अभिसिक्त करके दे दिया। उस जल के प्रभाव से राधापुरी गांव में फैला हुआ हैजा समाप्त हो गया।
इसी प्रकार आचार्यश्री ने एक अन्य पदयात्रा के दौरान एक गांव में फैले हुए भयंकर प्लेग रोग के शमनार्थ महामन्त्र से अभिसिक्त जल सरल हृदय ग्रामीणों के दुःख से कातर होकर दे दिया था। उस जल के प्रभाव से ग्राम में फैला हुआ प्लेग का रोग दूर हो गया और वर्षों तक वहां प्लेग के कारण किसी प्राणी को कष्ट नहीं पहुंचा। मनोनुकूल वर्षा-व्याप्ति :
आचार्यश्री संघ सहित सन् १९७० में ब्यावर (राजस्थान) के निकटवर्ती क्षेत्रों में शर्मप्रभावना के निमित्त विहार कर रहे थे। आसपास के क्षेत्रों में मूसलाधार वर्षा हो रही थी। अतः शहर के श्रावकों ने भक्तिवश आचार्यश्री से निवेदन किया कि वे वर्षा के कारण कुछ दिन के लिए संघ के विहार को स्थगित कर दें। श्रावकों के विनयानुरोध को किन्हीं कारणों से आचार्यश्री स्वीकार नहीं कर पाए । विहार करने से पूर्व उन्होंने श्रावकों को विश्वास दिलाया कि वर्षा के कारण संघ के विहार में बाधा नहीं पड़ेगी। आचार्यश्री की आज्ञा एवं इच्छा के सम्मुख सभी को नतमस्तक होना पड़ा। सभी श्रद्धा के साथ महाराजश्री के विहार में सम्मिलित हो गए। मार्ग में बरसाती बादलों से आकाश आच्छादित हो गया। उसी समय विहार में सम्मिलित होने वाले श्रावक-श्राविकाओं ने एक विशेष चमत्कार देखा कि संघ के पीछे थोड़ी दूरी पर और संघ से आगे दो-तीन मील की दूरी पर घनघोर वर्षा हो रही है किन्तु आचार्यश्री के गमन से सम्बन्धित क्षेत्र में पानी की एक भी बूंद नहीं गिरी और वर्षा के कारण बाधा उपस्थित नहीं हुई। विहार में सम्मिलित होने वाले सभी जैन-जैनेतर बन्धुओं को उस दिन धर्म की साक्षात् अनुभूति हुई और उन्होंने श्रद्धा से आचार्य-चरणों में शीश झुका दिए। आस्थाशोल व्यक्तित्व
परमपूज्य आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज को जैन एवं जैनेतर समाज में एक सिद्ध पुरुष के रूप में स्मरण किया जाता है। आचार्यश्री के साथ पदयात्रा करने वाले प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि उनके साथ विचरण करते समय विचित्र तरह के अनुभव होते हैं । पदयात्रा के दौरान आचार्यश्री का सम्पर्क विभिन्न स्वभाव के व्यक्तियों से होता है। आचार्यश्री के सौम्य एवं मद् व्यक्तित्व के दर्शन करके प्रायः सभी दर्शकों को आनन्द की अनुभूति होती है। उनके सम्मोहन से अभिभूत होकर कुटिल पुरुषों की क्रूरता निरस्त हो जाती है। शायद बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि आचार्यश्री एक बार भगवान् महावीर स्वामी की जन्मजयन्ती के अवसर पर चम्बल के जंगल में थे। दस्युदल संघ को लूटने के भाव से आया था। आचार्यश्री संघस्थ साध्वियों एवं श्राविकाओं को डेरे में रहने का आदेश देकर स्वयं पुरुष सदस्यों के साथ खुले आकाश के नीचे चांद की रोशनी में बैठ गए थे। दस्युदल आपके भव्य तेज के सम्मुख नतमस्तक हो गया और उसने संघ को लूटने के स्थान पर ढोल-मजीरों की मंगलध्वनि में आपका गुणगान किया ! देश-विदेश के सज्जन-दुर्जन सभी प्रकार के व्यक्ति आपके आध्यात्मिक वैभव के प्रति नतमस्तक होते रहे हैं।
कालजयी व्यक्तित्व
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