Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीस्ते
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भfor freरणया वि' यो भव्यः यदा निसर्जनतायै अपि ' विद्धंसणयाए वि ' विध्वंसनतायै अपि 'नो मारणयाए ' नो मारणतायै वाणं धनुषि संयोजयति तदा ' चउहिं ' चतसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टो भवति । स पुरुषो मृगमुद्दिश्य यावत्पर्यन्तं बाणं निक्षेपणाय विध्वंसनाय धनुषि संघते परन्तु न मृगमारणाय तावस्पर्यन्तं स पुरुषः कायिक्याधिकरणिकी प्राद्वेषिकी पारितापिनिकीति चतुक्रियावान् भवतीति भावः, 'जे भविए णिसिरणयाए ' यो भव्यो निसर्जनतायै अपि, 'विद्धंसणयाए वि' विध्वंसनतायै अपि 'मारणयाए वि' मारणतायै अपि बाणं प्रक्षिपति 'तावं चणं से पुरिसे' तावत् च खलु स पुरुषः 'काइयाए जाव पाणाइवा किरियाए ' कायिक्या यावत् प्राणातिपातक्रियया 'पंचहि किरियाहि पुढे ' पंचभिः क्रियाभिः स्पृष्टः यावत्पर्यन्तम् स पुरुषो मृगमुद्दिश्य बाणं प्रक्षेपणाय धनुषि संघ वेधनाय तथा मारणाय संघते तावत् स पुरुषः कायिकी त्याद्यारभ्य hat प्रद्वेषिकी ये तीन क्रियाएँ बद्ध की जाती हैं । (जे भविए णिसिरणया विविद्वंसणया विणा मारणयाए चउहिं ) तथा जब तक वह पुरुष मृगको उद्देश करके अपने बाणको चलाने के लिये और मृग को घायल करनेके लिये बाण को धनुष पर चढाता है मारनेके लिये नहीं तब तक वह पुरुष चार क्रियाओं से युक्त माना जाता है । तात्पर्य कहने का यह है कि उसने बाण छोड दिया और उस बाण ने मृग को लगकर घायल कर दिया जान से नहीं मारा-ऐसी स्थिति में वह पुरुष चार क्रियाओं का बंधकर्त्ता माना गया है । ( जे भविए णिसिरणयाए वि, विद्वंसणयाए वि, मारणयाए बि तावं च णं पुरिसे काइयाए जाव पाणाsarafaरियाए पंचहि किरियाहिं पुढे से तेणट्टेणं गायमा ! सिय तिकिfre forestate सिकपंचकिरिए ) तथा जब तक वह पुरुष मृगको लक्ष्य कर बाण को छोड़नेके लिये, धनुष पर चढाता है, मृग को वेधने डियागो वाणी अडवाय छे. ( जे भविए णिसिरणयाए वि विद्वंसणयाए वि णो मारणयाए चउहिं) परंतु न्यारे ते पुरुष भृगने लक्ष्य पुरीने, भृगने घायस કરવાને માટે તીર છેડે છે ત્યારે તે ચાર ક્રિયાવાળા કહેવાય છે . (તીરાડતી વખતે મૃગને ઘાયલ કરવાંના જ આશય છે મારવાના આશય નથી) તાત્પર્યં એ છે કે તેણે તીર છેડયુ અને તે તીર વાગવાથી મૃગ ઘાયલ થયુ... જાનથી મરી ગયુ' નહી—એવી સ્થિતિમાં તૈપુરુષને ચાર ક્રિયાઓના કર્તા માનવામાં आवे छे. (जे भविए णिसिरणयाए वि, विद्धंसणयाए वि, मारणयाए वि, तावं च णं पुरिसे काइयाए जाव पाणोइवात्र किरियाए पंचहि किरियाहिं पुट्ठे ! से तेण णं गोयमा ! सय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंच करिए) तथा ते पुरुष भृगने लक्ष्य
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨