Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
७१८
भगवतीसूत्रे रूपेण विचारः समुदपद्यत, "अहं इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं" अहमनेनैतद्रूपेण उदारेण 'जाव किसे धमणि संतए जाए' यावत् कृशो धमनीसंततो जातोऽस्मि, अत्र यावत्पदेन विपुलेन प्रयत्नेन प्रगृहीतेन कल्याणेन शिवेन धन्येन मंगल्येन सश्रीकेणोदग्रेणोदात्तेनोत्तमेनोदारेण महानुभावेन तपः कर्मणा शुष्को रूक्षो निमांसोऽस्थिचविनद्धः किटिकिटिका भूतः इति पर्यन्तविशेषणानां ग्रहणं भवति । "जीवं जीवेण गच्छामि " जीवो जीवेन गच्छामि । जीवबलेन गमनादि क्रियां करोमि न तु शरीरबलेनेति “ जीवं जीवेण चिट्ठामि ” जीवो जीवेन तिष्ठामि "जाव गिलामि यावत् ग्लायामि । यत्र यावत्पदेन भाषां भाषित्वाऽपि ग्लायामि ख्यान ही शाश्वतसिद्धिपद का दायक है) इस तरह की दढतारूप से युक्त होने के कारण तथा बाहिर अभीतक प्रकाशित न करने के कारण वह मनोगत कहा गया है। इस प्रकार के विचार उत्पन्न होने के कारण क्या था-सो सूत्रकार इस बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-उन स्कन्दक अनगार ने जब देखा कि "अहं इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं जाय किसे धमणिसंतए जाए' मैं इस २ प्रकार के उदार आदि पूर्वोक्ति विशेषणों बाले तप से कृश हो गया हूं, शरीर की समस्त धमनिकों-नाडियों का समूह बाहर में बिलकुल स्पष्ट नजर लगा है। (जीवं जीवेण गच्छामि) शारीरिक बल तो क्षीण हो गया है मैं आत्मा के ही बल से चलता हूं और (जीवं जीवेणं चिट्ठामि) आत्मा के ही बल से ठहरता हूं, शरीर पल से न चलता हूं और न ठहरता हूं (जाव गिलामि) यावत् जब मैं बोलते २ भी ग्लानियुक्त हो जाता हूं (बोलना पड़ेगा) ऐसा समझकर भी ग्लानियुक्त हो जाता हूं और जैसे सूखे काष्ट से मूखे पत्तों से सूखी तिलપ્રત્યાખ્યાન શાશ્વત સિદ્ધિપદ અપાવનાર છે” તે પ્રકારની દઢ શ્રદ્ધાથી યુક્ત હોવાને કારણે તથા તે વિચાર હજી કેની સમક્ષ પ્રકટ કરવામાં આવ્યો ન હતો તેથી તેને મને ગત કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રકારને વિચાર આવવાનું १२५५ शु तुं ? सूत्रा२ वे तेनुं ४।२६१ मताव छ-" अह इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं जाव किंसे धमणिसंतए जाए" २४४४ २५७॥यारे नयु ३ मा પ્રકારના ઉદાર આદિ પૂર્વોક્ત વિશેષણ વાળા તપથી મારું શરીર દુર્બળ થઈ પયું છે. શરીરની બધી નસોને સમૂહ બહારથી પૂરે પૂરો દેખાવા सायो छे. “जीवं जीवेण गच्छामि ' मा३ शारी२ि४ ५५ क्षी ५४ आयु छ ५४ हुमात्माना थी यादु छु.. “ जीवं जीवेणं चिद्रामि " આત્માના બળથી જ સ્થિર રહી શકું છું. એટલે કે શારીરિક બળથી શરીરનું दानयन सा तुं नथी. “जाव गिलामि" Radi Rati ५५ सानि
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨