Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ उ० १० सू०२ अस्तिकायस्वरूपनिरूपणम् १०४३ मोयए' एवं छत्रं चर्म दण्डो दृष्यम् ( वस्त्रम् ) आयुधम् मोदकः एवं यथा एकावयवरहितं चक्रं चक्रं न भवति यथा वा छत्र-चर्मदण्ड वस्त्रास्त्रमोदकादिकम् एकावयवरहितम् छत्रादिशब्देन न पपदिश्यते तथैव एकपदेशेनापि ऊनो धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकाय इति नैव वक्तव्यम् स्यात् इति भावः । ' से तेणटेणं गोयमा ! ' तत् तेनार्थेन गौतम ! ' एवमुच्चइ एगे धम्मत्थिकायपदेसेणो धम्मस्थिकाए ति वत्तव्वं सिया' एको धर्मास्ति धर्मास्तिकायप्रदेशो न धर्मा. स्तिकाय इति वक्तव्यं स्यात् अनेन कारणेन, हे गौतम ! कथयामि एकद्वारा प्रकट किया है । अतः गौतम के ही मुख से ( अवयव रहित चक्र ऐसी संज्ञा नहीं होती है किन्तु सकल अयवों से युक्त चक्र में ही चक्र ऐसी संज्ञा होती है ) इस प्रकारका निर्णय करा कर अन्यत्र भी इसी तरह से होता है इस बात को प्रभु उनसे प्रकट करते हैं-( एवं छत्ते, चम्मे, दंडे, दूसे, आउहे, मोयए, । हे गौतम । जिस प्रकार एकावयव रहित चक्र पूराचक्र नहीं कहलाता अथवा जैसे-छत्र, चर्म, दण्ड, वस्त्र, शस्त्र, मोदक आदि पदार्थ एक अपने अवयव से रहित होने पर छत्रादि शब्द द्वारा व्यपदिष्ट नहीं होते-उसी तरह एकप्रदेश से भी उन धर्मास्तिकाय धर्मास्तिकाय इस शब्द द्वारा व्यपदिष्ट नहीं हो सकता है। (से तेगटेणं गोयमा ! एवं बुरुवह, एगे धम्मास्थिकायपए मे णो धम्मस्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया) इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय रूप से वक्तव्य नहीं हो सकता है । अर्थात्- धर्मास्तिकाय के एकपदेश में धर्मास्तिकायता नही है । (जाव एगपएसूणे वि य णं धम्मत्यिकाए नो धम्मस्थिकाए त्तिवत्तनो खण्डे चक्के ) २शत गौतभावामीन भुभे , “ 431 मागने ? કહેવાતું નથી પણ આખા ચકને જ ચક્ર કહેવાય છે એ નિર્ણય કરાવીને भीत पहाभा ५४ मे मने छ ते विमाटे 3 छ-एव उत्ते. चम्मे, दंडे, दसे, आउहे, मोयए) गौतम वी शते ४ ५] मक्यथी રહિત ચક્રને આખું ચક્ર કહેવાતું નથી, જેવી રીતે એક પણ અવયવથી રહિત છત્ર, ચર્મ, દંડ, વસા, શસ્ત્ર, મોદક આદિને છત્ર, ચર્મ આદિ નામે ઓળખાતાં નથી એજ પ્રમાણે એક પણ પ્રદેશ ન્યૂન હોય એવા ધર્માસ્તિअयने मातिय ४डी शात नथी. ( से तेणद्रेण गोयमा ! एव वुच्चइ) ઇત્યાદિ. હે ગૌતમ ! તે કારણે મેં એવું કહ્યું છે કે ધર્માસ્તિકાયના એક પ્રદેશને ધર્માસ્તિકાયને નામે ઓળખી શકતું નથી, તેના બેથી લઈને અસર
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨