Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
२०६४
भगवतीसूत्रे अलोकाकाशे खलु भदन्त ! किं जीवाः पृच्छा ? तथैव गौतम ! नो जीवाः यावत् नो अजीवप्रदेशाः एवं अजीवद्रध्यदेशः अगुरुलघुकः अनन्तैरगुरुलघुकगुणः सयुक्तः सर्वाकाशोऽनन्तभागोन:
टीका:-'काविहेणं भंते ! आगासे पण्णत्ते' कतिविधः खलु भदन्त ! आकाशः प्रज्ञतः? हे भदन्त ! आकाशस्य कियन्तो भेदाः सन्तीत्यर्थः अयश्च प्रश्नः नैयायिकादिमतपसिद्धाकाशस्यैकत्वशङ्कानिराकरणपरक इति नानुपपन्नः प्रश्नः इति के प्रदेश और अद्धासमय है, (अलोगागासे णं भंते ! किं जीवा, पुच्च तह चेव ) हे भदन्त ! अलोकाकाश में क्या जीव हैं इत्यादि रूप से पहिले की तरह ही यहां पर पृच्छा जाननी चाहिये। (गोयमा) हे गौत. म! (नो जीवा जाव नो अजीवप्पएसा) अलोकाकाश में जीध नहीं है, यावत्-अजीव के प्रदेश भी नहीं हैं। (एगे अजीवदव्वदेसे ) वह अलोकाकाकाश एक अजीव द्रव्य देश रूप है। (अगुरुलहुए अणंतेहि अगुरु लहुय गुजेहिं संजुत्ते, सव्वागासे अणंतभागूणे) वह अगुरु लघुरूप है और अनंत अगुरुलघु स्वभाववाले गुणों से संयुक्त है तथा अनन्तभाग से हीन सर्वाकाशरूप है क्यों कि अलोकाकाश की अपेक्षा से लोकाकाश अनन्तभागरूप है। सू०॥४॥
टीकार्थ- (काविहेणं भंते ! आगासे पण्णसे ) गौतम स्वामी प्रभु महावीर से पूछ रहे हैं कि हे भदंत ! आकाश कितने प्रकार का प्रज्ञात कहा गया है ? अर्थात्- आकाश के कितने भेद हैं ? गौतम स्वामीने जो ऐसा प्रश्न किया है उसका कारण यह है कि नैयायिक आदि मत में
( अलोगागासेण भंते ! किं जीवा पुच्छा तहचव), महन्त ! मलोस કાશમાં શું જીવે છે વગેરે પ્રશ્નો આગળ લૈકાકાશના વિષયમાં પૂજ્ય પ્રમાણે १४ मही पूछन.( गोयमा ! 3 गौतम! ( नो जीवा जाव नो अजीव प्पएसा) Ratशम थी सन मना प्रश। फ्यन्तनु ४४ ५६ नथी ( एगे अजीववव्वदेसे ) ते २२ मे अपद्रव्य श३५ छ (अगुरू राहुए अणते हिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूऐ ते मगुरु सधु३५ છે, અનંત અગુરુલઘુ સ્વભાવવાળા ગુણેથી સંપન્ન છે, તથા અનંતભાવથી હીના સર્વાકાશરૂપ છે-કારણકે અલકાકાશની અપેક્ષાએ કાકાશઅનંત ભગરૂપ nલ્સ કn ___ -गौतम स्वामी महावीर प्रसुने पछे छ,(कइविहेणं भंते ! अगासे पण्णत) प्रभु ! 24taan रतुं धुंछ १ कोट , शना કેટલા ભેદ છે? આ પ્રકારને પ્રશ્ન પૂછવાનું કારણ એ છે કે નૈયાયિક આદિ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨