Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगफ्तीवो भगवानाह–'गोयमा' इत्यादिना "गोयमा " हे गौतम ! " अवण्णे-जाप अरूवी जीवे सासए. अवढिए लोगदव्वे " अवर्णा यावत् अरूपी जीवः शाश्वतोऽ पस्थितो लोकद्रव्यम् । इह यावत्पदेन अगन्धोऽरसोऽस्पर्श इत्येषां ग्रहणम् “ जीवे लासए " द्रव्यतो जीवः-चेतनावान-शाश्वतः " अवट्टिए " अवस्थितः पर्यायतः लोकस्य पश्चास्तिकायात्मकस्यांशभूतं द्रव्यमिति लोकद्रव्यम् । " से समासओ पंचविहे पन्नते" स समासतः संक्षेपेण स इति जीवास्तिकायः पञ्चविधः पञ्च प्रकारकः प्रज्ञप्तः कथितो जीव इति, पञ्चविधत्वमेव दर्शयति 'तं जहा' इत्यादि, "तं जहा" तद् यथा “दव्यो जाव गुणओ" द्रव्यतो यावत् गुणतः अब यावत्पदेन क्षेत्रकालभावानां ग्रहणं भवति, तत्र खलु " दबओ णं जीवस्थिकाए आताई जीवदवाई" द्रव्यतः खलु जीवास्तिकायोऽनन्तानि जीवद्रव्याणि द्रव्यास्स हैं और कितने स्पर्श हैं ? तब भगवान् गौतम से कहते हैं कि हे गौतम! (अवण्णे जाव अस्वी जीवे सासए, लोगदव्वे) जीवास्तिकाय इन रूप रस आदि पौद्गलिक गुणों से सर्वथा रहित है। वह अरूपी है, शाश्वत है, अवस्थित है, लोकद्रव्यरूप है । यहां यावत् पद से ( अगंध, अरस और अस्पर्श) इनका ग्रहण किया गया है। द्रव्य की अपेक्षा जीव चेतनावाला है, शाश्वत है और अवस्थित है। पर्याय की अपेक्षा पंचास्तिकायरूप लोक का अंशभूत द्रव्य है। (से समासओ पंचविहे पण्णत्ते) यह जीवास्तिकाय संक्षेप से पांच प्रकार को कहा गया है-(द. व्यओ) द्रव्य की अपेक्षा जीवास्तिकाय यावत् गुण की अपेक्षा जीयास्तिकाय यहां यावत् पदसे (क्षेत्र, काल और भाव) इन तीन का ग्रहण किया गया है । (तस्थ दव्वओणं जीवस्थिकाए अणंताई जीवदव्वाइं)
महावीर प्रभु वाम माघे छे-(गोयमा ! अवणे जाव अरूवी जीवे सामए, अवट्ठिए लोगदव्वे ) स्तिय ३५, २स, २५ कोरे पोरतिर ગુણેથી બિલકુલ રહિત હોય છે. તે અરૂપી છે, શાશ્વત છે, અવસ્થિત છે सन द्रव्य ३५ छे. मडी (जाव) ( पय-त) मध, सरस मले अ५४ એ વિશેષ લેવામાં આવ્યા છે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ જીવ ચેતનાવાળે, શાશ્વત અને અવસ્થિત છે. પર્યાયની અપેક્ષાએ પંચાસ્તિકાયરૂપ લોકના અંશભૂત द्रव्य छ (से समाओ पंचविहे पण्णत्ते) ते पास्तियना सक्षितमा नाये प्रभारी पांच से छ-(दव्वओ जाव गुणओ) (1) द्रव्यनी अपेक्षा पाસ્તિકાય, (૨) ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ જીવાસ્તિકાય, (૩) કાળની અપેક્ષાએ જીવા સ્તિકાય, (૪) ભાવની અપેક્ષાએ જીવાસ્તિકાય અને (૫) ગુણની અપેક્ષાએ Medseय. (तस्थ दवओ पंजीयत्थिकाए अण'ताई जीवदव्याई) द्रव्यनी
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨