Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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२०३४
भगवतीसूत्रे ताः असंख्याताः । भदन्त ! धर्मास्तिकायप्रदेशा धर्मास्तिकाय इतिवक्तव्यं स्यात् गौतम ! नायमर्थः समर्थः एकप्रदेशोनोऽपि च खलु भदन्त ! धर्मास्तिकायः धमास्तिकाय इति वक्तव्यं स्यात् नायमर्थः समर्थः तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते एको धर्मास्तिकायस्य प्रदेशो न धर्मास्तिकाय इतिवक्तव्यं स्यात् यावत् एकप्रदेशोनोऽपि च खलु धर्मास्तिकायो न धर्मास्तिकाय इति वक्तव्यं स्यात् तन्नूनं सकते हैं। तथा धर्मास्तिकाय के संख्यात प्रदेश भी धर्मास्तिकाय नहीं कहला सकते हैं। 'असंखेजा भंते धम्मत्थिकायपएसा धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया' हे भदन्त! धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश धर्मास्तिकाय इसरूप से वक्तव्य हो सकते हैं ? 'गोयमा! णो इणढे समढे' हे गौतम! यद् अर्थ समर्थ नहीं है-अर्थात् धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश धर्मास्तिकाय इसरूप से वक्तव्य नहीं हो सकते हैं। 'एगपएसूणे वि य णं भंते ? धम्मस्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया' हे भदन्त। एक प्रदेश न्यून भी धर्मास्तिकाय धर्मास्तिकाय इस पद से वक्तव्य हो सकता है ? 'गोय. मा! णो इण? समटे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । अर्थात्-एक प्रदेश न्यून भी धर्मास्तिकाय इस पद द्वारा वक्तव्य नहीं हो सकता है। 'से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ एगे धम्मत्थिकायस्स पएसे नो धम्मस्थिकाएत्ति वत्तव्वं सिया, जाव एगपएसूणे वि य णं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव्वं सिया' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हो कि धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय इसरूप से सध्यात अशान ५५५ धास्ताय उपाय नही. ( असंखेज्जा भंते ! धम्मत्थिकायपएमा धम्मस्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया ?) 3 महन्त ! घाताया અસંખ્યાત પ્રદેશને અનુલક્ષીને (આ ધર્માસ્તિકાય છે, એવું કહી શકાય ખરૂં ? (गोयमा ! णा इणठे समठे) हे गौतम! ते म° ५५ ५२।१२ नथीએટલે કે ધર્માસ્તિકાયના અસંખ્યાત પ્રદેશને પણ ધર્માસ્તિકાય કહી શકાય નહીં (एगपएसूणे वि य ण भंते ! धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकाएत्ति वसव्वं सिया ?) 3 ભદન્ત ! એક પણ પ્રદેશ ન્યૂન (એ) હેય એવા ધર્માસ્તિકાયને ધર્માસ્તિકાય ४ी २४य ५३ १ ( गोयमा ! णो इणठे समटूठे ) हे गौतम ! मे अर्थ ५५ બરાબર નથી, એટલે કે એક પ્રદેશની પણ ન્યૂનતા હોય તે તેને ધર્માસ્તિકાય जी नडी. ( से केणडेणं भंते एवं वुच्चइ एगे धम्मत्थिकायस्य पएसे नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया, जाव एगपएसूणे वि य ण नो धम्मत्थिकाए ति वचव्वं सिया) महन्त ! मा५ । २
छ। यस्तियना
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨