Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1053
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ उ० १० सू० २ अस्तिकायस्वरूपनिरूपणम् १०३९ अपि ' तिष्णि वि चत्तारि वि ' त्रयोऽपि चत्वारोऽपि ' पंच छ सत्त अट्ठ नव दश संखेज्जा' पश्चषट् सप्ताष्ट नव दश संख्याताः अपीतिशेषः धर्मास्तिकायस्य प्रत्येकस्मिन् अवयवे धर्मास्तिकाय इति व्यवहारो न युक्तस्तथा द्वित्रिचतुःपञ्चषट् सप्ताष्ट नव दश संख्येयाऽवयवेष्वपि धर्मास्तिकाय इति व्यवहारो नैत्र युज्यते इत्यर्थः । ' असं खेज्जा भंते ! धम्मत्थिकायपरसा धम्मत्थिकाए त्ति वत्तत्रं सिया ' असंख्याताः भदन्त ! धर्मास्तिकायमदेशाः धर्मास्तिकाय इति वक्तव्यं स्यात् - हे भद न्त ! धर्मास्तिकायस्य असंख्याताः प्रदेशा धर्मास्तिकायशब्देन व्यपदेष्टुं शक्याः किमित्यर्थः, भगवान आह-' गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे ' हे गौतम! नायमर्थः समर्थः = हे गौतम! एवं व्यपदेष्टुं नैव शक्यते इत्यर्थः ' एगपएमृणे वि य णं भंते! अर्थ समर्थ नही है अर्थात् धर्मास्तिकाय के प्रतिप्रदेश में धर्मास्तिकायत्वरूप व्यवहार नहीं होता है । इसी तरह से ( दोणि वि, तिण्णि विचत्तारि वि, पंच, छ, सत्त, अट्ठ, नव, दस, संखेज्जा ) धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशोंमें, तीन प्रदेशोंमें, चार प्रदेशोंमें, पांच प्रदेशोंमें, छह प्रदेशोंमें, सात प्रदेशों में, आठ प्रदेशों में नौ प्रदेशोंमें दश प्रदेशों में, संख्यात प्रदेशों में भी धर्मास्तिकायरूप व्यवहार नहीं होता है । (असं खेज्जा णं भंते ! धम्मत्थिकायपएसा ) हे भदन्त ! धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश धर्मास्तिकायरूप से वक्तव्य हो सकता हैं क्या ? अर्थात् वे धर्मास्तिकाय इस शब्द से व्यपदेश करना शक्य हो सकते हैं ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं (गोयमा ) हे गौतम ( णो सम) यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश धर्मास्तिकाय इस शब्द से व्यपदेश करना शक्य नहीं પણ હાતા નથી. હવે ગૌતમ સ્વામીના પ્રશ્નને! મહાવીર સ્વામીએ જે જવાબ આપ્યા તેનું ટીકાકાર નીચે પ્રમાણે સ્પષ્ટીકરણ કરે છે ( गोयमा ) हे गौतम! ( जो इणट्ठे समट्ठे ) ते अर्थ योग्य नथी. भेटले કે ધર્માસ્તિકાયના એક પ્રદેશને ધર્માસ્તિકાય કહી શકાતા નથી. એજ પ્રમાણે ( दोणि वि तिष्ण वि, चचारि वि, पंच छ, सत्त, अट्ठ, नव, दस, संखेज्जा ) धर्मास्तिठायना मे अहेशने, ऋणु अहेशने, यार अहेशने, पांय प्रदेशने, छ अहेशने, સાત પ્રદેશને, આઠ પ્રદેશને, નવ પ્રદેશાને દસ પ્રદેશને અને સ ંખ્યાત પ્રદેશને प्रभु भक्तिय उही शातां नथी. (असंखेज्जा णं भते ! धम्मथिकायपएसा १ હું ભઇન્ત ! ધર્માસ્તિકાયના અસંખ્યાત પ્રદેશાને ધર્માસ્તિકાય કહી શકાય ખરૂં' ? એટલે કે ધર્માસ્તિકાયના અસખ્યાત પ્રદેશને માટે ( ધર્માસ્તિકાય ) શખ્ત વાપરી શકાય ખરા ? મહાવીર પ્રભુ તેને આ પ્રમાણે જવામ આપે છે( गोयमा ! ) हे गौतम! ( जो इणट्टे समट्ठे ) आ अर्थ पशु मराभर नथी. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨

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