Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे रूपेण हव्यम् आगच्छति ? हव्यमिति वाक्यालंकारे सर्वत्र बोध्यम् । भगवानाह - 'गोयमा' हे गौतम ! " जहण्णेणं इक्कस्स वा दोण्हं वा तिण्हं वा " जघन्येन एकस्य वा द्वयो वा त्रयाणां वा पुत्रो भवति “ उक्कोसेणं सयपुहुत्तस्स जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वं आगच्छइ" उत्कृष्टेन शतपृथक्त्वस्य नव शतस्य जीवानां पुत्रतया पुत्रस्वरूपेण हव्यमागच्छति । मनुष्याणां तिरश्चाश्च वीजं द्वादशमुहूर्तान् यावत् योनिभूतं सचित्तं सत् तिष्ठति, तत्र तिरश्चां गवादीनां शत पृथक्त्वस्यापि नवशतानां गवादीनामपि यदि संयोगः स्यात्तदा तद्बीजं गवादि योनिप्रविष्टं बीजमेव कितने जीवों तक का (पुत्तत्ताए हवं आगच्छद) पुत्ररूप से हो सकता है। यहां (हव्व) जो पद आया है वह वाक्यालंकार में आया है। इसी तरह से उत्तर मूत्र में भी जाना चाहिये । उत्तर देते हुए प्रभु गौतम स्वामी से कहते हैं कि (गोयमा) हे गौतम ! एक जीव एक ही भवग्रहण से (इक्कस्स वा दोण्हं वा तिण्हं वा) एक जीव का, दो जीवों का, अथवा तीन जीवों तक का ( जहन्नेणं ) कम से कम में पुत्र बन सकता है और (सयपुहुत्तस्स जीवाणं पुत्तत्ताए) दो सौ से लेकर नौ सो जीवों तक का वह अधिक से अधिक में पुत्र बन सकता है। यह अभी प्रकट किया जा चुका है कि मनुष्यों का अथवा तियं चों का वीर्य बारह मुहूर्ततक योनिभूत-संचित रह सकता है ऐसी स्थिति में यदि एक गाय आदि के साथ दो सौ से लेकर नौ सौ तक साँड आदि प्रसंग करें तो उन सब का वह वीर्य उतने समय तक योनि में सचित्तरूप याण" ८८॥ याना " पुत्तत्ताए हब्वं आगच्छइ ” पुत्र३थे श छे ! मही २ (हब्ब ) ५४ माव्युं छे ते पाया२मा माव्यु छ. उत्तर सूत्रमा પણ એમ જ સમજવું. હવે ગૌતમના પ્રશ્નને જે ઉત્તર મળે તે સૂત્રકાર समान छ- "गोयमा !" गौतम ! मे ४ १ मे समा “ इक. स्स वा दोण्हं वो तिह वा जहन्नेणं " माछामा सोछ। मेरा सपना, अथवा में वन मथवा ] पना पुत्र मनी रा छ भने “ सयपुटुत्तस्स जीवाणं पुत्तत्ताए " वधारमा वधारे मसाथी नपसे। सुधीना वान पुत्र यश छे. હમણા જ એ વાત બતાવવામાં આવી છે કે યોનિમાં પ્રવિષ્ટ મનુષ્યનું તથા તિર્યંચાનું વીર્ય વધારેમાં વધારે ભાર મુહૂર્ત પર્યત સચિત્ત રહી શકે છે, આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં એક ગાય આદિની સાથે બસોથી નવસો સાંઢ સંગ કરે છે તે સૌનું વીર્ય એટલા સમય સુધી એનિમાં સચિત્ત જ પડ્યું
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨