Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श० २ उ० १ सू० १३ स्कन्दकचरितनिरूपणम् ६४५ 'मणसमिए' मनःसमितः-मन: अन्तःकरणं, तत्र समितः निरवद्यमनःप्रवृत्तिमान् कुशलमनोयोगवानित्यर्थः । 'वयसमिए' वचः समितः वचसि अनृत कटुत्वसावद्यादि दोषरहितवचने समितः = उपयोगवान् , हितमितप्रियसत्यवचो योगवानित्यर्थः ‘कायसमिए' कायसमितः कायः= शरीर, तत्र समितः प्राण्युपघातादिदोषपरिहारपूर्वकमाकुश्चनप्रसारणादि क्रियाकारकः । 'मणगुत्ते' मनोगुप्तः, मनसा-मनोव्यापारेण गुप्तः रक्षितः संयमितमनोब्यापारः मनोजन्या शिंधाणपरिष्ठापनिका समिति है। इस समिति से जो युक्त होते हैं वे उच्चार प्रस्रवण खेल जल्ल सिंधाणपरिष्ठाननिकासमितिवाले कहलाते हैं । ये स्कन्दक अनगार इस समिति से युक्त बन गये । 'मणसमिए' वे मनः समित वाले हो गये मन नाम अन्तः करण का है । इस अन्त:करण में वे समित यतना शाली हो गये अर्थात् निरवद्यमनः प्रवृत्ति से युक्त हो गये-अकुशल मनोयोगको त्याग कर वे कुशल मनोयोग वाले बन गये। 'वय समिए' वचन में समित हो गये, अर्थात् असत्य, कटुक,
सावद्य आदि दोषों से रहित ऐसे वचन में उपयोग वाले हो गये, हित, मित, प्रिय ऐसे सत्यवचन रूप योग से युक्त हो गये । 'कायसमिए' काय नाम शरीर का है, इसमें समित हो गये, अर्थात् जीवों का उपघात अपघात होने रूप दोष का परित्याग करते हुए वे स्कन्दक अन. गार अपने शरीर की आकंचन, प्रसारण आदि क्रिया करने लगे (मण. गुत्ते ) संयमित मनोव्यापारवाले हो गये, अर्थात् अपने मन को उन्हों ने वश में कर लिया। मनोयोग से जो कर्मरूप कचरा आता था उसका
मा॥२ ते सभितिथी ५ युस्त मनी गया. ( मणसमिए ) त्यार माह तमा મનઃસમિત બની ગયા. એટલે કે નિરવદ્ય (દોષ રહિત) મનની પ્રવૃત્તિવાળા બની ગયા-અશુભ મનાયેગને પરિત્યાગ કરીને તેઓ શુભમને ગવાળા मनी गया. ( वयसमिए) तेगा पयन समित मानी गया. मेटले , असत्य, કર્કશ સાવદ્ય (દેષ યુકત) વગેરે દેથી રહિત વચને બોલવા લાગ્યા. डित, भित, मने प्रिय सत्ययन ३५ योगथी युक्त पनी गया. ( कायसमिए) કાય એટલે શરીર, તેઓ કાયસમિત બની ગયા. એટલે કે પિતાના શરીરની ક્રિયાઓ અથવા પોતાનાં અંગેના હિલનચલન એવી રીતે કરવા લાગ્યા કે
थी ४ ५Y विराधना न थाय तेनुं ध्यान रामता गया. ( मणगुत्ते) તેમણે પોતાના મનને પૂરે પૂરૂં વશ કરી લીધું. તેઓ મનના સંયમથી યુક્ત થઈ ગયા મને ગથી જે કર્મ રૂપ રજને પ્રવેશ થતો હતો તેને
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨