Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२ उ० १ सू० १४ स्कन्दकचरितनिरूपणम् ६६७ पत्रशकटिका इति वा तिलशकटिका इति वा भांडकशकटिका इति वा, एरंडकाष्ठशकटिका इवि वा, अंगारशकटिका इति वा, उष्णे दत्ता शुष्का सती सशब्दं गच्छति, सशब्द तिष्ठति । एवमेव स्कंदकोऽपि अनगारः सशब्दं गच्छति सशब्दं तिष्ठति उपचितस्तपसा, अपचितो मांसशोणितेन हुताशन इव भस्मराशि प्रतिच्छनस्तपसा तेजसा तपस्तेजः श्रिया अतीवोपशोभमानस्तिष्ठति ॥ जैसे कोई लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी हो, पत्तों से भरी हुई गाड़ी हो, तिलों को फलियों से भरी हुई गाड़ी हो, एरंड के काष्ठों से भरी हुई गाड़ी हो, (भंडगसगडियाइ वा ) बर्तनों से भरी हुई गाडी हो । (इंगालसगडियाइ वा) अथवा अंगारा-कोयलों से भरी हुई कोई गाडी हो ( उण्हे दिण्णा सुक्का समाणी ससदं गच्छइ, ससदं चिट्ठइ ) और जब वह धूप में खूब सूक जाती है-तब वह खड़ खड़ शब्द करती हुई चलती है, ठहरने पर भी उसमें से खड़ खड़ शब्द निकलता है ( एवामेव ) इसी तरह से (खंदए वि अणगारे ससदं गच्छइ, ससदं चिट्ठइ) स्कन्दक अनगार भी जब चलते तब उनके शरीर में से हड्डियों का ढेर अवशिष्ट मात्र रह जाने के कारण उनके परस्पर के संघर्षण से खड खड़ शब्द निकलता । ( उवचिए तवेणं अवचिए मंससोणिएणं हुयासणेविव भासरासिपडिच्छपणे ) इस तरह वे यद्यपि शरीर से कृशता की पराकाष्ठा को पहुँच चुके थे-अर्थात् मांस और शोणित से वे बिलकल विहीन बन चुके थे पर फिर भी वे तप से उपचित थे । अर्थात् तपस्या से सistथी, (भंडास गडियाइ वा) पासशथी, ( इंगाउलगडियाइ वा )
auथी मारे गाईडाय. (उण्हे दिग्णा सुक्का सनागी ससई गच्छ, ससई चिदुइ ) भने ल्यारे ३५२१४१ १२तुमे घn तपने सीधे ५४ शु४
तय छ तेवी परतु माथी मारेसु ॥ यती मते (ट, मट) અવાજ કરતું ચાલે છે, અને જ્યારે તે ગાડું ઉભું રહે છે ત્યારે પણ (पट, मट सपा थाय छे. ( एवामेव) से प्रमाणे ( खंदए वि अणगारेससह गच्छइ, सस चिट्ठइ) न्यारे २४४४ २मगार यासता त्यारे तेमना હાડકાં એક બીજા સાથે ઘસાવાથી તેમાંથી (ખટ, ખટ) એવો અવાજ થત હતે તેમનું શરીર હાડકાના માળખા જેવું બની જવાને કારણે એવું બનતું उतुं ( उवचिए तवेण अवचिए मंससोणिदणं हुयासणेविव भासरासिपडिच्छण्णे) આ રીતે જો કે તેમનું શરીર કૃશતાને પરાકાષ્ઠાએ પહોંચી ગયું હતુંએટલે કે માંસ અને શેણિત (લેહી) થી બિલકુલ વિહીન બની ગયું હતું તે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨