Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ उ० १ सु० १२ स्कन्दकचरितनिरूपणम् ५८७ पर्यवाः दर्शन पर्याया इत्यर्थः भावतोऽनंतदर्शनपर्यायात्मकत्वं जीवस्येति । 'अणंता चारित्तपज्जवा ' अनंता चारित्रपर्यायाः, 'अणंता अगुरुलहुयपज्जवा ' अनंता अगुरुलघुपर्यवाः औदारिकशरीराणि प्रतीत्यानंतागुरुलघुपर्यायाः कार्मणादि द्रव्याणि जोवस्वरूपं चाश्रित्यानंता अगुरुलघुपर्याया इति, 'नथि पुग से अंते' नास्ति पुनस्तस्यांतः भावतो जीवस्यांतो नास्ति अनंतज्ञानदर्शनादि पर्यायात्मक त्वादितिभावः । ' से तं दबओ जीवे स अंते ' तदेतत् द्रव्यतो जीवः सान्तः, 'खेत्तओ जीवे स अंते ' क्षेत्रतो जीवः सान्तः, 'कालओ जीवे अणंते ' कालतो जीवोऽनंतः, 'भावओ जीवे अणंते ' भावतो जीवोऽनन्तः अनंतज्ञानदर्शनपर्यायाहै, क्यों कि दर्शन गुण की भी पर्यायें अनंत होती हैं । " अणंता चरित्त पज्जवा" अनन्त चारित्रपर्याय रूप है क्यों कि चारित्र गुणकी भी अनंत पर्यायें होती हैं । " अणता अगुरु य लहुय पज्जवा” अनंत अगुरुलघु पर्यायरूप है । औदारिक शरीर को लेकर अनंत गुरुलघुपर्याय. रूप है तथा कार्माण शरीर, और जीव के स्वरूप को आश्रित करके अ. नंत अगुरू लघु पर्यायरूप है। " नत्यि पुण से अंते" इस तरह भाव की अपेक्षा से जीव अनन्त-अन्तरहित है। " से तं दव्यो जीवे स अंते, खेतो जीवे स अंते, काल भो जीवे अर्णते भावओ जीवे अगते" इस सब कथनका अब उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि द्रव्यसे एक जीव सान्त है, क्षेत्र से भी वह सान्त है । पर काल और भाव की अपेक्षा से वह अनन्त है-सान्त नहीं है । तात्पर्य कहने का यह है कि जीव के ज्ञान, दर्शन और चारित्रपर्याय अनंत रूप है-इनका किसी ४२११४शन शुशुनी ५५] मन त पर्याय डाय छे “ अणता चरित्तपज्जवा" જીવ અનંત ચારિત્ર પર્યાય રૂપ છે, કારણ કે ચારિત્ર ગુણની પણ અનંત पर्याय हाय छे. “ अणंता अगुरुल हुय पज्जवा" ७१ मनात मगुरु सधु पर्या. યરૂપ છે. ઔદારિક શરીરની અપેક્ષાએ અનંત ગુરુ લઘુ પર્યાય રૂપ છે તથા કાર્મણ શરીર અને જીવના સ્વરૂપની અપેક્ષાએ અનંત અગુરુ લઘુ પર્યાય રૂ૫ છે. “नथि पुण से अंते” २॥ शते मापनी मपेक्षाये ७१ मत २डित छ,
- હવે જીવની સાન્તતા અને અનંતતા વિશેના સમસ્ત કથનને ઉપસંહાર ४२ता सूत्रा२ ४ छे , ' से तं दव्वओ जीवे स अंते, खेतओ जीवे स ओ, कालओ जीवे अणंते भावो जीवे अणते " द्रव्यनी અપેક્ષાએ એક જીવ સાન્ત અંતયુક્ત છે, ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ પણ તે સાત છે, પણ કાળ અને ભાવની અપેક્ષાએ જીવ અનંત “ અંતરહિત” છે કહેવાનું પ્રયોજન એ છે કે જીવની જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રપર્યાય અને તરૂપ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨