Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवती तथा हे भगवन् ! यदि अहं विचार्य पश्यामि तदाऽयं जीवलोको जरामरणाभ्यां दह्यते तस्य सांत्वने भवत्सदशवीर एक वीर इति कृत्वा भवतां शरणागतोऽहमतो मां सदुपदेशद्वारा संसारकान्ताराद्रक्षेति भावार्थः । एतदेव दृष्टान्तेन स्पष्टयति-'से जहाणामए केइ गाहावई' तद्यथा नाम कश्चित् गाथापतिः कश्चिद् गृहस्वामी 'अगारंसि' अगारे गृहे 'झियायमाणंसि' मायमाने दह्यमाने प्रज्वलति सति ‘जे से तत्थ भंडे भवइ' यत् तत् तत्र भांडम् उपकरणं भवति स्थितं भवतीत्यर्थः । कीदृशमित्याह 'अप्पभारे' अल्पभारम् अल्पो भारो यस्य तत् अल्पभाकरने के लिये जैसे किसी हाथ में पानी लिये हुए रक्षक वीर की आवश्यता होती है उसी तरह हे भगवन् यह तो निश्चित रूप से दिख. लाई ही पड़ रहा है कि यह समस्त जीवलोक रातदिन इस जरा मरण रूप अग्नि से भस्मसात् सा हो रहा है, अतः इसकी रक्षा करने के लिये मैं देख रहा हूं कि हे नाथ ! आपके सिवाय और कोई वीर नहीं है आप ही एक ऐसे वीर हैं-जो इस जरा मरण से बचा सकते हैं-इस लिये मैं इस अग्नि से बचने के लिये आपके चरणों की शरण में आया हुआ हूं-आप मेरी सदुपदेश प्रदान द्वारा इस संसार कान्तार से रक्षा करें । इसी बात को स्कन्दक दृष्टान्त द्वारा पुष्ट करता है-(से जहाणामए केई गाहावई ) जैसे कोई गाथापति-धनिक गृहस्थ हो, ( अगारंसि झियायमार्णसि) और उसके घर में आग लग जावे तो वह उस स्थिति में (जे से तत्थ भंडे भवई ) जो उस मकान में उपकरण होता है- कैसा उपकरण-कि ( अप्पभारे मोल्लगुरुए ) जिसका भार तो हो માટે હાથમાં પાણી લઈને અગ્નિને બુઝાવનાર કઈ વીર પુરુષની જરૂર પડે છે તેવી જ રીતે જરામરણ રૂપ અગ્નિથી અવિરતપણે સળગી રહેલા જીવની રક્ષા માટે આપના સિવાય કઈ પણ એવો વર નથી કે જે સમર્થ હોય આપજ એવા વીર છે કે જે જરામરણ રૂપ અગ્નિથી અમારું રક્ષણ કરવાને સમર્થ છે. તેથી હે નાથ ! જરા અને મરણરૂપ અગ્નિથી બચવાને માટે હું આપને શરણે આવ્યો છું આપ આપના સદુપદેશ રૂપ વચનામૃતનું પાન કરાવીને આ સંસાર રૂપી વનમાંથી મને પાર ઉતારે એજ વાતની પુષ્ટિ भाट २४४ मे १ष्टांत मा छ-(से जहाणामए केई गाहावई ) म
ये माथापति पनि (२५) छ. ( अगार सि झियायमाणंसि) तेना घरमा मा मागे छ. तो (जे से तत्थ भंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगुरुए) તેના ઘરમાં જે ઉપકરણે વજનમાં હલકાં પણ મૂલ્યવાન હોય છે તે ઉપકર
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨