Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १ उ० १० सू० २ उत्पातविरहनिरूपणम् ४३९ ___ छाया-निरयगतिः खलु भदन्त ! कियन्तं कालं विरहिता उपपातेन प्रज्ञप्ता? गौतम ! जघन्येन एकं समयम् उत्कृष्टेन द्वादशमुहूर्तान् एवं व्युत्क्रांतिपदं भणितव्यं निरवशेष, तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहति ॥ सू० ४ ॥
॥प्रथमशतके दशम उद्देशः समाप्तः ॥ १-१०॥
उपपापविरहअनन्तर प्रकरण में क्रिया का निरूपण किया है। जो क्रिया वाले होते हैं उनका उत्पाद होता है। इस तरह क्रिया के निरूपण होने पर क्रिया मूलक उत्पाद का स्मरण हो आता है और उत्पाद के स्मरण होने पर इसका विपक्ष भूत जो उत्पाद विरह है उसका स्मरण हो जाता है सो अब सूत्रकार इसी उत्पाद विरह का कथन करते हैं-'निरयगईणं भंते ! केवइयं कालं' इत्यादि
सूत्रार्थ-(भंते ) हे भदन्त ! (निरयगईणं) निरयगति-कितने कालनक ( उववाएणं ) उपपात से (विरहिया पण्णत्ता) विरहित कही गई है ? (गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं) हे गौतम ! जघन्य से एक समयतक और ( उक्कोसेणं ) उत्कृष्ट से (बारस मुहुत्ता) बारह मुहूर्त तक निरयगति उपपात से विराहित कही गई है। ( एवं वक्कतीपयं भाणियव्वं निरवसे सं ) इमी तरह समस्त व्युत्क्रान्तिक पद कहना चाहिये (सेवं भंते | सेवं भंते ! त्ति जावविहर) इसी यह प्रकार से है हे
पात विरह આગળના પ્રકરણમાં ક્રિયાનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. જેઓ કિયાવાળા હોય છે તેમને ઉપપાત (જન્મ) હોય છે. આ રીતે કિયાનું નિરૂપણ કરતી વખતે ક્રિયામૂલક ઉપપાતનું મરણ થઈ આવે છે. અને ઉપપત’નું સ્મરણ થતાં તેના પ્રતિપક્ષી ઉપપાત, વિરહનુ સમરણ થઈ આવે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર ઉપાપત વિરહનું નિરૂપણ કરે છે.
“निरयगईणं भंते ! केवइयं कालं" त्याल. सूत्राथ-(भंते!) भगवन् ! (निरयगईणं केवइयं काल) २४गति ॥ ४ सुधी ( उववाएणं विरहिया पण्णत्ता ? ) 6५पात वि२डित ही छ! (गोयमा 1) गौतम! (जहण्गेणं एक समय) माछामा माछी मे समय भने (उकोसेणं बारस मुत्ता) पधारेभा पधारे ॥२ भुत सुधी न२४गतिने S५५तमी वि२डित ४ छे. ( एवं वक्कंती पयं भाणियव्व निरवसेसं) म शत मासु व्युडिन्त ५४ ४: ( सेव भंते ! से मते ! त्ति जाव विहर) હે ભગધ્રાન્ આપનું કહેવું સાચુ છે. હે ભગવાન્ આપના કહેવા પ્રમાણે જ બધું બરાબર છે. આ પ્રમાણે કહીને ભગવાનને વંદણુ નમસ્કાર કરીને ગૌતમ સ્વામી સંયમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભવિત કરતા પોતાને સ્થાને બેસી ગયા.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨