Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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५.२
भगवतीसूत्रे जे वि य ते खंदया जाव स अंते जीवे अणंते जीवे ये पि च ते स्कन्दक ! यावत् सान्तो जीवोऽनंतो जीवः यावत्पदेन-तव मनसि अयमेतद्रूप आध्यात्मिकश्चिन्तितः कल्पितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत किम् इत्यस्य संग्रहः । 'तस्स वि य णं अयम?' तस्यापि च खलु अयमर्थः जीवविषयक प्रश्नस्येदमुत्तरम् ‘एवं खलु यावत्-अत्र यावत्पदेन 'मया स्कन्दक ! चतुर्विधो जीवः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः' इति । संग्रहः, 'दबओ णं एगे जीवे स अंते ' द्रव्यतः खलु एको जीवः सांतः द्रव्यापेक्षया एक जीवमाश्रित्य सान्तो जीव इति । वीर जीवविषयक द्वितीयप्रश्न का उत्तर स्कन्दक को देते हुए कहते हैं-"जे वि य ते खंदया ! जाव स अंते जीवे अणंते जीवे"हे स्कन्दक! जो तुम्हारे चित्त में यह विकल्प उठा जीव सान्त-अन्त सहित है ? या अनन्त-अन्त रहित है ? 'तस्स वि य णं अयमढे' सो उसका भी यह अर्थ-उत्तर है, अर्थात्-हे स्कन्दक ! जो तुम्हें ऐसा मन में संकल्प हुआ है कि क्या जीव सान्त-अन्त सहित है या अनन्त -अन्त रहित है ? सो उसका उत्तर इस प्रकार है-' एवं खलु जाव' इस प्रकार हे स्कन्दक ! मैंने जीव चार प्रकार का प्ररूपित किया है वह इस प्रकार से-एक द्रव्य की अपेक्षा दूसरा क्षेत्रकी अपेक्षा से तीसरा काल की अपेक्षा से और चौथा भाव की अपेक्षा से । “ व्यओ णं एगे जीवे स अंते" द्रव्य की अपेक्षासे एक जीव सान्त-अन्त सहित है। तात्पर्य कहने का यह कि यहां द्रव्य की अपेक्षा से एक जीव को लेकर जीव सान्त है ऐसा कहा गया है। क्योंकि एक के बाद दो जब आते हैं तो एक संख्या सान्त-अन्त महित हो जाती है। वैसे सिद्धान्त में पी२ २४४ ५छे। ०५ विषेना मी प्रश्न उत्तरे माथे छ ,, जे वि य ते खंदया ! ज व स अंते जीवे अणते जीवे” २४६४ ! तमा। मनमा જવના વિષયમાં આ પ્રકારની શ કા ઉદ્ભવેલ છે કે “જીવ અન્ત સહિત છે કે मन्त सहित १" " तस्स वि य ण अयमटूठे" तो तेने उत्तर २॥ प्रमाणे छ-" एवं खलु जाब" २४.६४ ! में ना या२ २ १३.या छ. (त जहा) ते प्रमाण छ-(१) द्रव्य (२) क्षेत्र (3) ण भने (४) साव આ ચારેની અપેક્ષાએ જીવની સાન્તતા અને અનંતતાને વિચાર કરે नये. "दव्यओ एगे जीवे स अंते" द्रव्यनी अपेक्षामे मे ७१ सान्तઅન્ત સહિતછે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે અહીં દ્રવ્યની અપેક્ષાએ તથા એક જીવની અપેક્ષાએ જીવને સાન્ત (અન્ત સહિત) કહે છે. કારણ કે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨