Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२ उ०१ सू०४ मृताद्यनगारस्वरूपनिरूपणम् ४७७
छाया-मृतादी खलु भदंत ! निर्ग्रन्थो नो निरुद्धभवो नो निरुद्धभवप्रपंचो नो महीणसंसारो नो प्रक्षीणसंसारवेदनीयो नो व्यवच्छिन्नसंसारो नो व्यवच्छिनसंसारवेदनीयो नो निष्ठितार्थः नो निष्ठितार्थकरणीयः पुनरपि अत्रस्थं हव्वं आगच्छति ? इन्त गौतम ! मृतादी निर्ग्रन्थो यावत् पुनरपि अत्रस्थं हव्वं आगच्छति ॥ पर उत्पत्ति हो सकती है सो दिखलाते हैं-'मडाई णं भंते ! नियंठे' इ०
सूत्रार्थ-(मडाई णं भंते ) हे भदन्त ! प्रासुक भोजी (नियंठे) निर्ग्र न्य, कि जिसने (नो निरुद्धभवे ) अपने भव का निरोध नहीं किया है, ( णो पहीणसंसारे ) जिसका संसार क्षीण नहीं हुआ है (णो पही. णसंसारवेयणिज्जे ) जिसका संसार वेदनीय नष्ट नहीं हुआ है ( नो वोच्छिन्न संसारे) जिसका संसार व्युच्छिन्न नहीं हुआ है (जो वोच्छि. भसंसारवेयणिज्जे ) जिसका संसार वेदनीय व्युच्छिन्न नहीं हुआ है ( णो निट्टिय? ) जो कृतार्थ नहीं हुआ है (णो निट्ठियहकरणिज्जे) जिसका काम समाप्त हुए कार्य की तरह पूर्ण नहीं हुआ है वह क्या ( पुनरवि) फिर से भी (इत्थत्थं हव्वं आगच्छइ) इस तिर्यश्च मनुष्यादि गतिरूप संसार को प्राप्त करता है ? (हंता गोयमा) हे गौतम ! (मडाई णं नियंठे जाव पुनरवि इत्थस्थं हव्वं आगच्छइ) पूर्वोक्त विशेषणों वाला मृतादी निर्घन्ध अनगार तिर्यश्च मनुष्यादि गतिरूप संसार को वारंवार प्राप्त करता है। त्या४ Sur- थाय छे. “मडाई णं भंते ! नियं ठे" त्या"
सूत्राथ-(मडाईणं भंते ! ७ मापन ! प्रासु २२ बेना२ (निय ठे) निन्थ, 30 (नो निरुद्धभवे ) पाताना सपना निराध श्यों नथी. ( नोनिरुद्धभवपवंचे) संसारना अपयनी निरोध र्या नथी, ( णो पहीणसंसारे)
नो ससा२ क्षार थयो नथी, ( णो पहीणसंसारवेयणिज्जे ) ना ससा२ वहनीयन। नाश थयो नथी, ( णो वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जे ) न ससा२नुं छेड्न थयु नथी. (णो निट्ठियटे) २ कृतार्थ थया नथी, णो निठ्ठियदु कर બિન્ને જેનું કાર્ય સમાપ્ત થયેલા કાર્યની જેમ પૂરું થયેલ નથી, એટલે કે જે तत्य थया नथी शु (पुनरवि ) ३शथी ५y ( इत्थंत्थ हव्व आगच्छइ) मा तियय, मनुष्य वगेरे गति३५ संसारने प्रास ४२ छ. १ (हता गोयमा!) डा, गौतम! (मडाई णं नियठे जाव पुनरवि इत्थस्थ हव्व आगच्छद) પૂર્વોકત વિશેષણે વાળો પ્રાસુક આહાર લેનાર નિગ્રંથ અણગાર તિર્યંચ, મનુષ્ય ગતિરૂપ સંસારને વારંવાર પ્રાપ્ત કરે છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨