Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीस्त्रे भाववन्त एव भवन्तीति भावः । ' से तेणटेणं०' तत्तेनार्थेन , अनेन कारणेन हे गौतम ! नारकजीवाः लब्धिवीर्येण सवीर्याः करणवीर्येण तु सवीर्या अपि अवीर्याअपीति भावः । नारकजीवानाम् वीर्यवत्वं प्रतिपाद्य शेषत्रयोविंशतिदण्डकजीवानां तत्मतिपादयितुमाह-'जहे ' त्यादि, 'जहा नेरइया एवं जाव पंचिदियतिरि. क्खजोणिया' यथा नैरयिका एवं यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, येन रूपेण नारकविषये वीर्यस्य सद्भावादिकं चिन्तितम् एवं तेनैव प्रकारेण यावत् पञ्चेन्द्रिय वीर्य से सवीर्य हैं, परन्तु करणवीर्य से रहित होने के कारण वीर्यवाले नहीं हैं । यह कथन अपर्याप्त अवस्था की अपेक्षा से किया गया जानना चाहिये । क्यों कि अपर्याप्तावस्था में किसी भी जीव के उत्थानादि क्रियाएँ नहीं होती है। अतः अपर्याप्तावस्था में उत्थानादि क्रिया रहित नारकजीव लब्धिवीर्यवाले होते हुए भी करणवीर्य की अपेक्षा वीर्याभावविशिष्ट ही होते हैं । ( से तेणटेणं० ) इस कारण हे गौतम! नारक जीव लब्धिवीर्य की अपेक्षा से सवीर्य होने पर भी करणवीर्य की अपेक्षा से तो वे सवीर्य भी होते हैं और वीर्य से रहित भी होते हैंऐसा मैंने कहा है । इस तरह नारक जीवों में वीर्यवत्ता का प्रतिपादन करके अब सूत्रकार शेष २३ दण्डकों में इस बात को प्रतिपादन करने के निमित्त कहते हैं कि-( जहा णेरइया एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोजोणिया मणूया जहा ओहिया जीवा णवरं सिद्धवज्जा भाणियव्या, वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा णेरइया) जिस रूप से नारकविषय में वीर्य के सद्भाव असद्भाव का विचार किया गया है, उसी प्रकार से
જી લબ્ધિવીર્યની અપેક્ષાએ સવીર્ય છે, પરંતુ કરણવીર્યની અપેક્ષાએ અવીય છે. આ કથન અપર્યાપ્ત અવસ્થાની અપેક્ષાએ કરવામાં આવ્યું છે તેમ સમજવું. કારણ કે કઈ પણ જીવને અપર્યાપ્ત અવસ્થામાં ઉથાન આદિ ક્રિયાઓ હેતી નથી. તેથી અપર્યાપ્તાવસ્થામાં ઉત્થાનાદિ ક્રિયારહિત નારક જીવી લબ્ધિ वीय डा। छतi ४२वीय नी अपेक्षा वीडित ४ 31य छ ( से तेणगुण ० ) गौतम ! ते २0 में से ४युं छे है ना२४ । यिनीय ना અપેક્ષાએ સવીય હોવા છતાં પણ કરણવીર્યની અપેક્ષાએ સવર્ય પણ હોય છે. અને એવી પણ હોય છે. આ રીતે નારક જીવમાં વીર્યવત્તાનું પ્રતિપાદન કરીને હવે સૂત્રકાર બાકીનાં ૨૩ દંડકમાં તેનું પ્રતિપાદન કરવાને માટે કહે છે કે (जहा णेरइया एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा जहा ओहिया जीवा णवर सिद्धवज्जा भाणियव्वा, वाणमतर-जोतिस-वेमाणिया जहा णेरइया) रवी રીતે નારકોના વિષયમાં વીર્યના સદૂભાવ અને અસદ્દભાવને વિચાર કરવામાં
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨