Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
भगवती सूत्रे
३२२
,
बाधकाभावात् भगवद्भिः स्थविरैः तथा प्रतिपादितं, ततः कालास्यवेषिकपुत्रोऽनगारः पुनः स्थविरान् पृच्छति' तरणं से कालासवे सियपुत्ते अनगारे थेरे भगवंते एवं वयासी - जइ भे अज्जो आया सामाइए. आया सामाइयस्स अट्ठे एवं जात्रआया विउस्सग्गस्स अट्ठे' ततः खलु स कालास्यवेषिकपुत्रः अनगारः स्थविरान् भगवतः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् - हे आर्याः ! यदि भवतां मते आत्मा एव सामायिक वर्तते, आत्मा एव च सामायिकस्य अर्थ प्रयोजनं फलम् वर्तते, एवं तथैव यावत् प्रत्याख्यानादिव्युत्सर्गान्तः वर्तते, आत्मैव व्युत्सर्गस्य अर्थः प्रयोजनं वर्तते, 'अह, कोह- माण- माया-लोभे किं अहं अज्जो ! गरहह ? ' हे आर्याः ! तर्हि क्रोध - मान - माया - लोभान अपहृत्य - परित्यज्य रागद्वेषकामक्रोधादिरहितो भूत्वापि किमर्थं कथं तावत् ' णिदामि गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि'
"
इत्यादिरूप से व्यवहार होने के कारण आत्माही सामायिक है, आत्मा ही सामायिक का प्रयोजन है । इस तरह से व्युत्सर्ग प्रयोजन तक आत्मा को तत्तद्रूप मानने में कोई बाधक नहीं है। इस कारण भगवंतों ने ऐसा प्रतिपादित किया है । स्थविर भगवंतों द्वारा इस प्रकार का प्रतिपादन सुनकर " से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते एवं वयासी " उन कालास्यवेषिकपुत्र अनगार ने उन स्थविर भगवंतों से इस प्रकार से पूछा - " जइ भे अज्जो ! आया सामाइए, आया सामाइस्स अट्ठे एवं जाव आया विउसग्गस्स अट्ठे " कि हे आर्यो ! यदि आप के मत में आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का प्रयोजन है तथा इसी तरह से आत्मा ही यावत् व्युत्सर्ग का प्रयोजन है तो फिर आप लोग क्रोध, मान, माया, लोभ इनका परित्याग कर अर्थात् राग, द्वेष, काम क्रोध आदि से रहित होकर भी " किमर्थ कथं तावत् 'णिदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि' क्यों इन वचनों द्वारा अवध (पाप) જ સામાયિક છે, આત્મા જ સામાયિકનુ' પ્રયેાજન છે, આ રીતે વ્યુત્સગ પ્રયાજન સુધીની ખાતામાં આત્માને તે તે રૂપે માનવામાં કાઇ પણ જાતના વાંધા આવતા નથી. તે કારણે જ સ્થવિર ભગવંતાએ તેમનું પ્રતિપાદન કર્યું" છે. સ્થવિર ભગવંતાવડે સામાયિક વગેરેનું તે પ્રકારનું પ્રતિપાદન સાંભળીને “ से कालः सवेसिपुते अणगारे थेरे भगवते एवं वयासी " ते असास्यवेषिपुत्र
ܕܪ
गुगारे ते स्थविर लगवताने या प्रमाणे पूछयु - " जइ मे अज्जा ! आया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ठे एवं जाव आया बिउसग्गस्स अट्ठ" हे आर्यो ! જો આપના મત પ્રમાણે આત્મા જ સામાયિક હાય, આત્મા જ સામાયિકનુ प्रयोजन होय, ( यावत् ) आत्मा व्युत्सर्गनु प्रयोजन होय तो आप शा કારણે ક્રોધ, માન, માયા અને લેાભના પરિત્યાગ કરીને એટલે કે રાગ, દ્વેષ, अम, ोध वगेरे रहित थह ने यु" किमर्थं कथं तावत् " जिंदामि, गरिहामि,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨