________________ प्रश्न-सभी प्राणी अच्छे या बुरे कर्म करते हैं। कोई भी प्राणी बुरे कर्म का फल नहीं चाहता और कर्म स्वयं जड़ होने से किसी चेतन प्रेरणा के बिना फल देने में असमर्थ हैं, अतः कर्म फल भुगताने में ईश्वर नामक किसी शक्तिविशेष की कल्पना औचित्यपूर्ण ही है। अन्यथा कर्मफल असम्भव हो जाएगा? अर्थात् कर्म जड़ होता हुआ फल देने में कैसे सफल हो सकता उत्तर-यह सत्य है कि कर्म जड़ है और यह भी सत्य है कि प्राणी स्वकृत कर्म का अनिष्ट फल नहीं चाहते, परन्तु यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि चेतन के संसर्ग से कर्मों में एक ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिस से वह अपने अच्छे और बुरे फल को नियत समय पर प्रकट कर देता है। कर्मवाद यह मानता है कि चेतन का सम्बन्ध होने पर ही जड़ कर्म फल देने में समर्थ होता है। कर्मवाद यह भी कहता है कि फल देने के लिए ईश्वररूप चेतन की प्रेरणा को मानने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि सभी जीव चेतन हैं; वे जैसा कार्य करते हैं उस के अनुसार उन की बुद्धि वैसी ही बन जाती है, जिस से बुरे कर्म के फल की इच्छा न रहने पर भी वे ऐसा कृत्य कर बैठते हैं कि जिस से उनको अपने कर्मानुसार फल मिल जाता है। कर्म करना एक बात है और फल को न चाहना दूसरी बात है। मात्र चाह न होने से कर्म का फल मिलने से रुक नहीं सकता। कारणसामग्री के एकत्रित हो जाने पर कार्य स्वतः ही होना आरम्भ हो जाता है। उदाहरणार्थ-एक व्यक्ति मदिरापान करता है और चाहता है कि मुझे बेहोशी न हो तथा कोई व्यक्ति धूप में खड़ा हो कर उष्ण पदार्थों का सेवन करता है और चाहता है कि मुझे प्यास न लगे। ऐसी अवस्था में वह मदिरासेवी तथा आतप और उष्णतासेवी व्यक्ति क्या मूर्छा और घाम से बच सकता है ? नहीं। सारांश यह है कि न चाहने से कर्मफल नहीं मिलेगा, यह कोई सिद्धान्त नहीं है। इस के अतिरिक्त ईश्वर को किसी भी प्रमाण से कर्मफलप्रदाता सिद्ध नहीं किया जा सकता। प्रत्यक्ष से तो यह असिद्ध है ही, क्योंकि ईश्वर को किसी भी व्यक्ति ने आज तक कर्मफल देते हुए नहीं देखा। अतः प्रत्यक्ष प्रमाण से ईश्वर कर्मफलदाता सिद्ध नहीं होता। अनुमान के लिए पक्ष, सपक्ष और विपक्ष का निश्चित होना अत्यावश्यक है। कारण 1. एक और उदाहरण लीजिए-जैसे कोई व्यक्ति रसनेन्द्रिय के वशीभूत हो कर अस्वास्थ्यकर भोजन करता है तो उसके शरीर में व्याधि उत्पन्न हो जाती है। वह व्यक्ति उस व्याधि का तनिक भी इच्छुक नहीं है। उसकी इच्छा तो यही है कि उसके शरीर में कोई व्याधि उत्पन्न न हो परन्तु स्वास्थ्यविरुद्ध तथा हानिप्रद भोजन करने का फल व्याधि के रूप में उस को अपनी इच्छा के विरुद्ध भोगना ही पड़ता है। इसी प्रकार मनुष्य को अपने कर्मों का फल अपनी इच्छा के न होते हुए भी भोगना ही पड़ता है। 2. सन्दिग्धसाध्यवान् पक्षः, यथा-धूमवत्त्वे सति हेतौ पर्वतः। निश्चितसाध्यवान् सपक्षः-यथा 62 ] श्री विपाक सूत्रम् [प्राक्कथन