________________ है वहां-वहां सादिसंयोग है। यह व्याप्ति दूषित है अर्थात् वियुक्त पदार्थों का संयोग अवश्य होता है यह कोई नियम नहीं है। संसार में ऐसे पदार्थ भी दृष्टिगोचर होते हैं कि जहां संयोग का नाश तो होता है अर्थात् संयुक्त पदार्थ विभक्त तो होते हैं परन्तु विभक्तों का फिर संयोग नहीं होता। उदाहरणार्थ-धान्य और आम्रफल आदि को उपस्थित किया जा सकता है। जैसे-धान्य पर से उस का छिलका उतर जाने पर उस का फिर 'संयोग नहीं होता। इसी प्रकार आम्रवृक्ष पर से टूटा हुआ आम्र फल फिर उस से नहीं जोड़ा जा सकता। तात्पर्य यह है कि चावल और छिलके के संयोग का नाश तो प्रत्यक्ष सिद्ध है परन्तु इन का फिर से संयुक्त होना देखा नहीं जाता। पृथक् हुआ छिलका और चावल दोनों फिर से पूर्व की भाँति मिल जाएं, ऐसा नहीं हो सकता। इसीलिए आत्मा से विभक्त-पृथक् हुए कर्मों का आत्मा के साथ फिर कभी सम्बन्ध नहीं हो सकता। इस के अतिरिक्त आत्म-सम्बन्ध कर्मों का विनाश हो जाने के बाद उन को फिर से उज्जीवित करने वाला कोई निमित्तविशेष वहां पर नहीं होता। अत: आत्म कर्म सम्बन्ध-संयोग अनादि सान्त है और इन का वियोग सादि अनन्त है। दूसरे शब्दों में-उक्त सम्बन्ध के नाश का फिर नाश नहीं होता, यह कह सकते हैं। आत्मा कर्मपुद्गलों को किस प्रकार ग्रहण करता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जैसे उष्ण तेल की पूरी अथवा शरीर में तेल लगाकर कोई धूलि में लेटे तो धूलि उस के शरीर में चिपक जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व, कषाय, योग आदि के प्रभाव से जीवात्मा के प्रदेशों में जब परिस्पन्द होता है, हलचल होती है, तब जिस आकाश में आत्मा के प्रदेश होते हैं वहीं के अनन्त पुद्गलपरमाणु जीव के एक-एक प्रदेश के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं / इस प्रकार जीव और कर्म का आपस में दूध और पानी, आग और लोहे के समान सम्बन्ध होता है। तात्पर्य यह है कि दूध और पानी तथा आग और लोहे का जैसे एकीभाव हो जाता है उसी प्रकार जीव और कर्मपुद्गल का सम्बन्ध समझना चाहिए। सुख-दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति, ऊंच-नीच आदि जो अवस्थाएं दृष्टिगोचर होती हैं, उन के होने में काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि अन्यान्य कारणों की भाँति कर्म भी एक कारण है। कर्मवादप्रधान जैनदर्शन अन्य दर्शनों की भान्ति ईश्वर को उक्त अवस्थाओं का कारण नहीं मानता। जैनदर्शन तथा वैदिकदर्शन में यही एक विशिष्ट भिन्नता है। तथा जैनदर्शन को वैदिकदर्शन से पृथक् करने में यह भी एक मौलिक कारण है। . 1. जहा दड्ढाणं बीयाणं न जायंति पुणंकुरा। कम्मबीयेसु दड्ढेसु न जायन्ति भवंकुरा॥ (दशाश्रुतस्कंध दशा 5) अर्थात् जैसे दग्ध हुआ बीज अंकुर नहीं देता, उसी प्रकार कर्मरूप बीज के दग्ध हो जाने से मानव जन्म मरण रूप संसार को प्राप्त नहीं करता। प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [61