Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
त०रा०
४७
और वचन बहुवचन है, उस तरह प्रमाणका नहीं किंतु प्रमाणं' यह एकवचन और नपुंक लिंग ही है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका लिंग - नपुंसकलिंग और वचन बहुवचन है. तथापि प्रधानता रहने के कारण मोक्षमार्गका वैसा नहीं, किंतु 'मोक्षमार्गः' यह एकवचन और पुलिंग ही है । आत्यंतिक: सर्वकर्मनिक्षेपो मोक्षः ॥ ३९ ॥
ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मोंका सर्वथा नष्ट हो जाना मोक्ष है । मोक्ष धातुका अर्थ क्षेपण-दूर कर देना है। उससे भाव साधन अर्थ में घञ् प्रत्यय करनेपर व्याकरण शास्त्रको रीति के अनुसार मोक्ष पदार्थ सिद्ध होता है ।
मृः शुद्धिकर्मणो मार्ग इवार्थाभ्यंतरीकरणात् ॥ ४० ॥
शुद्धि करना रूप अर्थ को कहनेवाले मृजि धातुसे घञ् प्रत्यय करने पर मार्ग शब्दकी सिद्धि होती है और जो शुद्ध हो वह मार्ग है यह उसका अर्थ है । तथा मार्ग शब्द के अन्दर इव अव्ययको गुप्त माना है । इव प्रत्ययका अर्थ उपमा- समानता बतलाना है इस रीति से मार्ग शब्द के अन्दर इव अव्यय माननेसे 'मार्ग इव मार्गः' ऐसी मार्ग शब्दको व्युत्पत्ति हो जाती है और उसका अर्थ यह है कि जि तरह यह टीला कांटे पत्थर कंकर आदिके दूर कर देने पर रास्ता साफ हो जाता है और रास्तागीर बड़े आराम से अपने इष्ट स्थान पर पहुंच जाते हैं उसी तरह मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और असंयम मिथ्याचारित्र रूप दोषोंके दूर हो जानेपर जिस समय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ख रूपं शुद्ध मोक्ष मार्ग प्राप्त हो जाता है उस समय भव्य लोग बडी आसानीसे मोक्ष सुख पालेते हैं इस | लिये मार्ग - रास्ता के समान होनेसे मोक्षमार्ग यहांपर मार्ग शब्द कहा गया है ।
भाषा