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वियाहपण्णत्ति प्रश्न किये | उसका प्रश्न था-सुप्तपना अच्छा है या जागृत. पना ? भगवान् ने उत्तर में कहा-"कुछ लोगों का सुप्तपना अच्छा है, कुछ का जागृतपना ।" छठे उद्देशक में राहु द्वारा चन्द्र के ग्रसित होने के संबंध में प्रश्न है। दसवें शतक में आत्मा को कथंचित् ज्ञानस्वरूप और कथंचित् अज्ञानस्वरूप बताया है। तेरहवें शतक के छठे उद्देशक में वीतिभयनगर ( भेरा, पंजाब में ) के राजा उद्रायण की दीक्षा का उल्लेख है। चौदहवें शतक के सातवें उद्देशक में केवलज्ञान की अप्राप्ति से खिन्न हुए गौतम को महावीर आश्वासन देते हैं। पन्द्रहवें शतक में गोशाल की विस्तृत कथा दी हुई है जो बहुत महत्व की है। यहाँ महावीर के ऊपर गोशाल द्वारा तेजोलेश्या छोड़े जाने का उल्लेख है जिसके कारण पित्तज्वर से महावीर को खून के दस्त होने लगे। यह देखकर सिंह अनगार को बहुत दुःख हुआ। महावीर ने उसे में ढियग्रामवासी रेवती के घर भेजा, और कहा-"उसने जो दो कपोत तैयार कर रक्खे हैं। उन्हें मैं नहीं चाहता, वहाँ जो परसों के दिन अन्य मार्जारकृत कुक्कुटमांस रक्खा है, उसे ले आओ" (दुवे कावोयसरीरा उवक्खडिया तेहिं नो अहो । अस्थि से अन्ने पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुड: मंसए तमाहराहि )।' सत्रहवें शतक के पहले उद्देशक में
१. अभयदेवसूरि ने इस पर टीका करते हुए लिखा है-"इत्यादेः श्रूयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते (कुछ तो श्रूयमाण अर्थ अर्थात् मांसपरक अर्थ को ही स्वीकार करते हैं ) । अन्ये स्वाहुः कपोतकः-पक्षिविशेषस्तद्वद् ये फले वर्गसाधात्ते कपोते-कूष्मांडे, हस्वे कपोते कपोतके, ते च शरीरे वनस्पतिजीवदेहत्वात् कपोतकशरीरे, अथवा कपोतकशरीरे इव धूसरवर्णलाधादेव कपोतशरीरे कूप्मांडफले एव ते उपसंस्कृते-संस्कृते (कुछ का कथन है कि कपोत का अर्थ यहाँ कूष्मांड-कुम्हड़ा करना चाहिय)। 'तेहिं नो अटो' त्ति बहु पापरवात् । 'पारिआसिए'त्ति पारिवासितं यस्तनमित्यर्थः । 'मजारकडए' इत्यादेरपि केचित् श्रूययाणमेवार्थ मन्यन्ते ('मार्जारकृत' का भी कुछ लोग श्रूयमाण अर्थ ही मानते हैं )।