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आवश्यकनियुक्ति
२०७ कहानियों का समावेश है। फिर पंच परमेष्टियों के स्वरूप का प्रतिपादन है।
वन्दना अध्ययन में संगम स्थविर, आर्यवत्र, अन्निकापुत्र, उदायन ऋषि आदि मुनियों के जीवन-वृत्तान्त हैं। ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट साधुओं को पार्श्वस्थ की संज्ञा दी है। मथुरा में सुभिक्षा प्राप्त होने पर भी आर्यमंगु आहार का कोई प्रतिबंध नहीं रखते थे, इसलिये उन्हें पार्श्वस्थ कहा गया है।' प्रतिक्रमण अध्ययन में नागदत्त का उदाहरण दिया है। तत्पश्चात् आलोचना आदि योगसंग्रह के उदाहरण दिये हैं जिनमें परम्परागत अनेक कथाओं का उल्लेख है। इन कथाओं में आर्य महागिरि, आर्य सुहत्थी स्थूलभद्र, धर्मघोष, वास्तक, सालिवाहन, गुग्गुल भगवान्, करकंडू आदि प्रत्येकबुद्ध और आर्य पुष्पभूति आदि के वृत्तान्त कहे गये हैं। बाईस तीर्थंकरों के द्वारा सामायिक, तथा वृषभ और महावीर के द्वारा छेदोपस्थापना का उपदेश दिये जाने का उल्लेख है। कायोत्सर्ग अध्ययन में अंगबाह्य के अंतर्गत कालिकश्रुत के ३६ भेद तथा उत्कालिक श्रुत के २८ भेद बताये हैं। यहाँ पर नन्दीसूत्र का उल्लेख है जिससे पता
१. भगवतीसूत्र के १५ वें शतक में कहा है कि एक बार जब २४ वर्ष की दीक्षावाला मंखलि गोशाल आजीवक मत की उपासिका हालाहला कुम्हारी के घर श्रावस्ती में ठहरा हुआ था तो उसके पास शान, कलंद, कर्णिकार, अछिन्द्र, अग्निवेश्यायन और गोमायुपुत्र अर्जुन नाम के छह दिशाचर आये । यहाँ टीकाकार अभयदेव ने दिशाचर का अर्थ 'भगवच्छिष्याः पार्श्वस्थीभूताः' अर्थात् पतित हुए महावीर के शिष्य किया है। चूर्णीकार ने इन्हें 'पासावञ्चिज्ज' अर्थात् पार्श्वनाथ के शिष्य कहा है । ये लोग पूर्वगत अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता बताये गये हैं। पार्श्वस्थ निग्रंथ साधुओं का उल्लेख अन्यत्र भी मिलता है। क्या पार्श्वस्थ निर्ग्रन्थों को ही तो पासावच्चिज्ज नहीं कहा ? आजीवक मतानुयायी गोशाल का भी उनसे घनिष्ठ संबंध मालूम होता है।