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संस्कृत में कथा-साहित्य विषयों पर एक-से-एक बढ़कर संस्कृत ग्रंथों का निर्माण हुआ । जैन आचार्यों ने संस्कृत में भी अपनी लेखनी चलानी शुरू की। प्राकृत का स्थान अब संस्कृत को मिला | सिद्धर्षि ( ईसवी सन् ६०५) ने उपमितिभवप्रपंचा कथा, धनपाल ने तिलकमंजरी, हेमचन्द्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, और हरिषेण ने बृहत्कथाकोष जैसे मौलिक ग्रंथों की संस्कृत में रचना की, लक्ष्मीवल्लभ ने उत्तराध्ययन की टीकाओं में उल्लिखित प्राकृत कथाओं का संस्कृत रूपान्तर प्रस्तुत किया । प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत रचनाओं को मुख्य बताते हुए सिद्धषि ने लिखा है
संस्कृता प्राकृता चेति भाषे प्राधान्यमहतः तत्रापि संस्कृता तावद् दुर्विदग्धहृदि स्थिता । बालानमपि सद्बोधकारिणी कर्णपेशला | तथापि प्राकृता भाषा न तेषामभिभाषते ॥ उपाये सति कर्तव्यं सर्वेषां चित्तरंजनम् । अतस्तदनुरोधेन संस्कृतेयं करिष्यते ॥ १.५१-५२
-संस्कृत और प्राकृत ये दो ही भाषायें मुख्य हैं। इनमें संस्कृत दुर्विदग्धों के मन में बसी हुई है। उन्हें अज्ञजनों को सद्बोध प्रदान करनेवाली और कर्णमधुर प्राकृत भाषा अच्छी नहीं लगती। तथा उपायान्तर रहने पर सबके मन का रंजन करना चाहिये, अतएव ऐसे लोगों के अनुरोध से यह रचना संस्कृत में लिखी जाती है।
अपभ्रंशकाल श्वेताम्बरों की भाँति दिगम्बर विद्वानों ने प्राकृत कथा-साहित्य के सर्जन में योगदान नहीं दिया। इसका एक यह भी कारण था कि श्वेतांबरों की भाँति आगम और उन पर लिखी हुई व्याख्याओं का विपुल साहित्य उनके समक्ष नहीं था। किन्तु ईसवी सन की लगभग दसवीं शताब्दी के आसपास से अपभ्रंशसाहित्य में अपनी रचनायें प्रस्तुत कर इन विद्वानों ने अपनी