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४७४ प्राकृत साहित्य का इतिहास अनेक कलाओं में कुशल कोई योगीन्द्र श्मशान में आसन मार कर नभोगामिनी बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करता है। तप का प्रभाव बताने के लिये मृगांकरेखा और अघटक की कथायें वर्णित हैं। धर्मदत्त कथानक में धर्मदत्तकुमार की कथा है। यशधवल नामका कोई सेठ गजपुर नगर में रहता था । शासनदेवी की उपासना से उसके धर्मदत्त नामका पुत्र हुआ। बड़े होने पर तिहुणदेवी के साथ उसका विवाह हो गया। कुछ समय बाद उसकी धनार्जन की इच्छा हुई और वह अपनी पत्नी के साथ परदेश के लिये रवाना हो गया। रास्ते में उसे कूट नामका एक ब्राह्मण मिलातीनों आगे बढ़े। रात हो जाने पर धर्मदत्त ने ब्राह्मण से कोई कहानी सुनाने के लिये कहा । ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि यदि मुझे ५०० द्रम्म पेशगी दो तो मैं कोई अनुभवपूर्ण कहानी सुना सकता हूँ | धर्मदत्त ने उसे मुंहमांगा रुपया दे दिया। ब्राह्मण ने एक श्लोक पढ़ा
नीयजणेणं मित्ती कायव्वा नेव पुरिसेण | -पुरुष को नीच आदमी के साथ मित्रता नहीं करनी चाहिये।
धर्मदत्त ने कहा, क्या बस इतनी सी बात के लिये तुमने मुझ से इतना रुपया ऐंठ लिया। ब्राह्मण ने उत्तर दिया-"यदि एक हजार द्रम्म दो तो और भी बढ़िया कहानी सुनाऊँ ।” धर्मदत्त ने फिर उसे मुंहमांगा रुपया दे दिया | अबकी बार ब्राह्मण ने पढ़कर सुनाया
महिलाए विस्सासो कायव्वो नेव कइया वि । -महिलाओं का विश्वास कभी नहीं करना चाहिये ।
कहानी सुनाकर ब्राह्मण ने धर्मदत्त से कहा कि यदि तुम इन दोनों कथानकों को हृदय में धारण करोगे तो कभी हार नहीं मान सकते । चलते समय ब्राह्मण ने मंत्राभिषिक्त जो की मुट्ठी भर कर धर्मदत्त को देते हुए कहा कि ये जौ बोने के साथ ही उग आयेंगे। जो लेकर धर्मदत्त आगे बढ़ा | नगर के राजा