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६०० प्राकृत साहित्य का इतिहास में क्रीडा के लिए जाता। इस प्रसङ्ग पर वसन्त ऋतु का विस्तार से वर्णन किया गया है। यहाँ वाणारसी के ठगों का उल्लेख है। स्त्री-पुरुषों की विविध क्रीडाओं का उल्लेख है
आसणठिआइ घरिणीइ गहवई मंपिऊण अच्छीई। __ हसिरो मोत्तुं संकं चुंबिअ अन्तं सढो मुइओ ।।
-आसन पर बैठी हुई अपनी गृहिणी की आँखें बन्द करके कोई शठ पुरुष निश्शंक भाव से किसी अन्य स्त्री का चुम्बन लेकर प्रसन्न हो रहा है।
मा सोउआण अलिअं कुप्प मईआ सि तुम्हकेरो हैं । इअ केण वि अणुणीआ णिअयपिआ पाणिणी अजडा ॥
-(सखी द्वारा कहे हुए) मिथ्या वचन को सुनकर तू ऋद्ध मत हो; तू मेरी है, मैं तेरा हूँ, इस प्रकार किसी ने पाणिनीय व्याकरण के रूपों द्वारा अपनी विचक्षण प्रिया को प्रसन्न किया ।
चौथे सर्ग में ग्रीष्म ऋतु में जलक्रीडा का वर्णन है। पाँचवें सर्ग में वर्षा, हेमन्त और शिशिर ऋतुओं का वर्णन है । पद्मावती देवी के पूजन की तैयारी की जा रही है। इस प्रसंग पर लेखक ने युष्मद् शब्द के एक वचन और बहुवचन के रूपों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं
तं तुं तुवं तुह तुमं आणेह नवाई नीवकुसुमाइं।
भे तुम्भे तुम्होयहे तुम्हे तुज्झासणं देह ।। -हे सखि । तू , तू , तू, तू और तू ( तं, तु, तुवं, तुह, तुमये युष्मद् शब्द के प्रथमा के एक वचन के रूप है)-तुम सब नूतन नीप के पुष्प लाओ। और हे सखियो ! तुम, तुम, तुम, तुम और तुम (भे, तुब्भे, तुम्होरहे, तुम्हे और तुझ ये युष्मद् शब्द के बहुवचन के रूप हैं)तुम सब आसन लाओ। ___उद्यान से लौटकर राजा कुमारपाल अपने महल में आ जाते हैं। वे सन्ध्याकर्म करते हैं। सन्ध्या के समय विद्याध्ययन करनेवाले विद्यार्थी निर्भय होकर क्रीडा करने लगते हैं। चकवा और चकवी का विरह हो जाता है।