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प्राकृत साहित्य का इतिहास
अत्थक्करुसणं खणपसिज्जणं अलिअवअणणिब्बन्धो । उम्मच्छरसन्तावो पुत्तअ ! पअवी सिणेहस्स || (स० कं० ५, १७८; गा० स०७, ७५ ) हे पुत्र ! अचानका रूठ जाना, क्षणभर में प्रसन्न हो जाना, भिथ्या वचन कहकर किसी बात का आग्रह करना और ईर्ष्या से संताप करना - यह स्नेह का मार्ग है ।
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अहंसणेण पुत्तअ ! सुट्ठ वि हत्थउडपाणिआई व कालेज
नेहाणुबन्ध गहिआई । गलन्ति पेम्माई ॥
(स० कं० ५, ३२८; गा० स० ३, ३६ ) हे पुत्र ! हस्तपुट में रखे हुए जल की भाँति स्नेहानुबंध से गृहीत सुष्ठु प्रेम दीर्घकाल तक दर्शन के अभाव में क्षीण होने लगता है ।
अन्दन्तेण णहं महिं च तडिउद्धमाइअदिसेण । दुन्दहिगम्भीररवं दुन्दुहिअं अंबुवाहेण 11
(स०कं० २,१९० ) आकाश और पृथ्वी पर फैल जानेवाला तथा बिजली से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करनेवाला मैघ दुंदुभि की भाँति गंभीर शब्द करने लगा ।
अमअम गअणसेहर रअणीमुहतिलअ चन्द ! देच्छिवसु । छित्तो जेहिं पिअअमो ममं वि तेहिं चिअ करेहिं ॥ (स० कं० ५, ३३७, गा० स०१, १६ ) जिन किरणों द्वारा तू ने मेरे प्रियतम का स्पर्श किया हैं, उन्हीं किरणों से अमृत रूप, आकाश के मुकुट और रजनीमुख के तिलक हे चन्द्रमा ! तू मुझे भी स्पर्श कर । (परिकर अलंकार का उदाहरण )
अम्हारिसा वि कइणो कइणो हलिबुड्ढहालपमुहा वि । मण्डुकमा वहु होन्ति हरीसप्पसिंहा वि ॥
(स० कं० १, १३३ ) कहाँ हमारे जैसे और कहाँ हरिवृद्ध और हाल इत्यादि ( असाधारण प्रतिभावान ) कवि ? कहाँ मेढक और बंदर तथा कहाँ सर्प और सिंह ? अलस सिरोमणि धुत्ताणं अग्गिमो पुत्ति ! धणसमिद्धिमओ । इअ भणिएण णअंगी पम्फुल्ल विलोअणा
जाभा ॥
( काव्य० ४, ६० )
हे पुत्र ! (जिससे तुम प्रेम करती हो) वह आलक्षियों का शिरोमणि, धूर्तों का अगुआ और धन-सम्पत्तिवाला है । इतना सुनते ही उसकी आँखें खिल उठीं और उसका शरीर झुक गया । ( अर्थशक्ति उद्भत्र ध्वनि का उदाहरण )
अलिअपसुत्तअविणिमीलिअच्छ ! देसु सुहअ ! मज्झ ओआसं । गण्डपरिडंबणापुलइ अङ्ग
ण पुणो चिराइस्सं ॥ (स० कं० ५, १६९; सा०, पृ० १९४; गा० स० १, २० )