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अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७२३ कह कह विरएइ परं मग्गं पुलएइ छेजमाविसइ । चोरव्व कई अत्थं लडुं दुक्खेण णिव्वहइ ॥
(स० के० ४, १८९; वजालग्गं २२) कवि किसी न किसी प्रकार पद (चोर के पक्ष में पैर ) की रचना करता है, मार्ग ( कविशैली ) का अवलोकन करता है, छेद (छेक अलंकार अथवा छिद्र ) में प्रवेश करता है, इस प्रकार वह चोर की भाँति महान् कष्टपूर्वक अर्थ ( चोर के पक्ष में धन ) को प्राप्त करने में समर्थ होता है । ( उपमा अलंकार का उदाहरण)
कह णु गआ कह दिट्ठा किं भणिआ किं च तेण पडिवण्णं ।
एअंचिअ ण समप्पइ पुणरुत्तं जम्पमाणीए ॥ (स० के०५, २३२) कैसे वह गई, कैसे उसने देखा, क्या कहा और क्या स्त्रीकार किया, इस बात को बारबार कहते हुए भी वह बात समाप्त नहीं होती।
कहं मा झिजउ मज्झो इमीअ कन्दोट्टदलसरिच्छेहि। अच्छीहिं जो ण दीसइ घणथणभररुद्धपसरेहिं ॥
(स० कं०४, १५५, ५,३५४) विशाल स्तनों के कारण जिनकी गति अवरुद्ध हो गई है ऐसे कुवलयदल के समान नेत्रों के द्वारा जो दिखाई नहीं देता, ऐसा इस नायिका का मध्य भाग कहीं क्षीण न हो जाये !
का खाअइ खुहिओ कूरं फेल्लेइ णिब्भरं रुटो। सुण गेण्हइ कण्ठे हक्केड अ णत्तिअं थेरो॥
(स० कं० १, ३०; काव्या० पृ० २१५, २५४) रूठा हुआ कोई भूखा वृद्ध पुरुष कौए को खा लेता है, चावल फेंक देता है, कुत्ते को डराता है और अपनी नातिन को कण्ठ से लगा लेता है।
(संकीर्ण वाक्यदोष का उदाहरण ) कारणगहिओ वि मए माणो एमेअ जं समोसरिओ। अस्थक्कप्फुल्लिअंकोल्ल तुज्झ तं मत्थए पडउ ॥
(स० के० ५, २६१) मैंने किसी कारण से मान किया था, लेकिन अकस्मात् ही अशोक की कली दिखाई दी और मेरा मान नष्ट हो गया; हे अशोक की कली ! इसका दोष तेरे सिर पर है।
काराविऊण खरं गामउलो मजिओ अ जिमिओ अ । णक्खत्तंतिहिवारे जोइसि पच्छिउं चलिओ ॥
(स० कं० १, ५५, काव्या० पृ० २६४,३७९) ग्रामीण पुरुष ने क्षौरकर्म के बाद स्नान और भोजन किया, फिर ज्योतिषी से नक्षत्र, तिथि और दिन पूछ कर वह चल दिया (उसने क्षौरकर्म आदि के पश्चात् :तियि के संबंध में प्रश्न किया, जब कि होना चाहिये था इससे उल्टा)।
(अपक्रम दोप का उदाहरण)