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अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७२१ वह विचारी सरकंडे के समान सरल है, दिनभर आलस्य में बैठी हुई रोती है और जंभाई लेती रहती है। अपराधी तू है और दण्ड उसे भुगतना पड़ रहा है ! (अन्यासक्त नायक के प्रति यह उक्ति है ) । ( संचारीभावों में अमर्ष का उदाहरण)
कत्तो सम्पडइ मह पिअसहि ! पिअसंगमो पओसे वि। जं जिअजइ गहिअकरणिअरखिखिरी चन्दचण्डालो ॥
(स० के० ५, १५१) हे प्रिय सखि ! जब तक कि यह दुष्ट चन्द्रमा अपने हाथ में खिंखरी ( एक प्रकार का वाद्य ) लिये जीवित है, तब तक प्रदोष के समय भी प्रियतम के साथ मिलाप कैसे हो सकता है ?
कमलकरा रंभोरू कुवलअणअणा मिअंकवअणा सा। कहं णु णवचंपअंगी मुणालबाहू पिआ तवइ ॥
(स० के० ४, ३) कमल के समान हाथ वालो, कदली के समान ऊरु वाली, कुवलय के समान नेत्र वाली, चन्द्रमा के समान मुख वाली, नव चंपक कली के समान अंग वाली और मृणाल के समान बाहुबाली प्रिया भला क्यों संताप सहन नहीं करती ? (अर्थात् करती ही है)
कमलाअरा ण मलिआ हंसा उड्डाविआ ण अ पिउच्छा! केण वि गामतडाए अब्भं उत्ताणों बूढम् ॥
(ध्वन्यालोक उ०२ पृ० २१९; गा० स०२,१०) हे बुआ जी ! गांव के इस तालाब में न तो कमल ही खंडित हुए हैं, न हंस ही उड़े हैं, जान पड़ता है किसी ने आकाश को खींच-तान कर फैला दिया है। (तालाब में मेघ के प्रतिबिंब को देखकर किसी मुग्धा नायिका की यह उक्ति है)।
कमलेण विअसिएण संजोएन्ती विरोहिणं ससिबिम्बं । करअलपल्लत्थमुही किं चिन्तसि सुमुहि ! अन्तराहिअहिअआ॥
(साहित्य, पृ० १७९) अपने विकसित कमल ( करतल ) के साथ विरोधी चन्द्रबिंब (मुख ) को संयुक्त करती हुई हे सुमुखि ! अपने करतल पर मुख को रखकर मन ही मन तू क्याः सोच रही है ?
करजुअगहिअजसोआत्थणमुहविणिवेसिआहरपुडस्स । संभरिअपंचजण्णस्स णमह कण्हस्स रोमञ्चं ॥
(काव्य० प्र० १०, ५५१) दोनों हार्थों से पकड़कर यशोदा के स्तनों पर अपने ओठों को लगाये पांचजन्य शंख का स्मरण करते हुए कृष्ण भगवान् के रोमांच को प्रणाम करो।
(स्मरण अलंकार का उदाहरण ), ४६ प्रा० सा०