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अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची
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कमल को मुख में धारण करके विरक्त हुई ( तीरनलिनी के पक्ष में रक्त वर्ण वाली ), कामदेव के द्वारा नर्तित ( अथवा इधर-उधर हिलने वाली ) और जलरूपी शयन पर सोती हुई ( जल में स्थित ) ऐसी अपनी सहचरी चकवी के पास चकवा अपने कूजन द्वारा प्राप्त होता है और तट की कमलिनी का आलिंगन करता है । ( तिर्यगाभास का उदाहरण )
ओल्लोल्लकरअर अणक्खएहिं तुह लोअणेसु मह दिण्णं । रत्तंसुअं पआओ कोवेण पुणो इमेण
अकमिआ ||
( काव्य० प्र० ४. ७० ) हे प्रियतम ! मेरे इन नेत्रों में क्रोध नहीं है । यह तो तुम्हारी ( किसी सुंदरी के) दन्तक्षत और नखक्षत के द्वारा तुम्हें प्रसाद स्वरूप दिया हुआ एक रक्त अंशुक ( वस्त्र ) है । ( नायक के प्रश्न करने पर कि तुम्हारे नेत्रों में क्रोध क्यों है, उत्तर में नायिका की यह है ) । ( उत्तर अलंकार का उदाहरण tags उल्लाह परिवहह सअणे कहिंपि । हिअएण फिट्टइ लज्जाइ खुट्टइ दिहीए सा ॥ ( साहित्य० पृ० ४९८ ) वह (कोई विरहिणी ) शय्या पर कभी नीचे मुँह करके लेट जाती है, कभी ऊपर को मुँह कर लेती है और कभी इधर-उधर करवट बदलती है । उसके मन को जरा भी चैन नहीं, लज्जा से वह खेद को प्राप्त होती है और उसका धीरज टूटने लगता है ।
ओसुअइ दिग्णपडिवक्खवेअणं पसिढिलेहिं अंगेहिं ।
णिव्वत्तिअसुरअरसाणुबन्धसुहणिन्भरं सोहा ॥ (स० कं० ५,६४ ) सुरत समाप्त होने के पश्चात् जिसे अतिशय सुख प्राप्त हुआ है, और जिसने अपनी सौतों के हृदय में वेदना उत्पन्न की है, ऐसी शिथिल अंगों वाली पुत्रवधु ( आराम से ) शयन कर रही है। ' ( रसप्रकर्ष का उदाहरण )
अंतोन्तं डज्झइ जाआसुण्णे घरे हलिभउत्तो । उक्खत्तणिहाणाई व रमिअट्ठाणाइं पेच्छन्तो ॥
(स० कं ५, २०७१ गा० स० ४, ७३ ) हलवा का पुत्र अपनी प्रियतमा से शून्य घर में, जमीन खोदकर ले जाये गये खजाने की भाँति, (पूर्वकाल में ) रमण के स्थानों को देखकर मन ही मन झुर रहा है।
अंदोलक्खणोद्विआए दिट्ठे तुमम्मि मुद्धाए । आसंधिज्जइ काउं करपेल्लणणिञ्चला दोला ॥
(स० कं०५, ३०१ )
१. मिलाइये - रँगी सुरत- रँग पिय हियँ लगी जगी सब राति । पैंड- पैंड पर ठठुकि के ऐंड भरी ऐंडाति ॥
( बिहारी सतसई १८३ )