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अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७३९ ण उण वरकोदण्डदण्डए पुत्ति! माणुसेवि एमे ।।
गुणवजिएण जाअइ वंसुप्पण्णे वि टंकारो॥ (स० के०३,८९) हे पुत्रि ! यह उक्ति केवल श्रेष्ठ धनुष के संबंध में ही नहीं, बल्कि मनुष्य के संबंध में भी ठीक है कि सुवंश (बांस, वंश) में उत्पन्न होने पर भी गुणों (रस्सी, गुण.) के बिना टंकार का शब्द नहीं होता। (निदर्शन अलङ्कार का उदाहरण)
णच्चिहिइ णडो पेच्छिहिह जणवओ भोइओ नायओ। सो वि दूसिहिइ जइ रंगविहडणअरी गहवइधूआ ण वञ्चिहिइ ॥
(स०के०५,३१९) नट नृत्य करेगा, लोग उसे देखेंगे, नायक भोगी है। लेकिन यदि गृहपति की पुत्री वहाँ न जायेगी तो वह नायक दूषित होगा और रंग में भंग पड़ जायेगा।
णमह अवडिअतुंगं अविसारिअवित्थअं अणोणअभं गहिरं। . अप्पलहुअपरिसण्हं अण्णाअपरमत्थपाअडं 'महुमहणं ॥
(स.कं०३, १६सेतु १,१) जिसकी ऊँचाई आकाशव्यापी है, मध्य में विस्तार बहुत फैला हुआ है और गहराई अधोलोक में बहुत दूर तक चली गई है तथा जो महान् है, सूक्ष्म है और जो परमार्थ से अज्ञात होकर भी ( घट, पट आदि रूप में ) प्रकट है, ऐसे मधुमथन (विष्णु) को नमस्कार करो। (विभावना अलङ्कार का उदाहरण)
णमह हर रोसाणलणिद्दद्धमुद्धमम्महसरीरम् । वित्थअणिअम्बणिग्गअगंगासोत्तं व हिमवंतम् ॥ (स०६०१, ६२) जिसने अपनी क्रोधाग्नि से मुग्ध मन्मथ के शरार को दग्ध कर दिया है और जो विस्तृत नितंब से निकली हुई गंगा के प्रवाह वाले हिमालय पर्वत के समान है, ऐसे शिवजी को नमस्कार करो । ( असदृशोपम वाक्यार्थ दोष का उदाहरण)
ण मुअन्ति दीहसासंण रुअन्ति ण होन्ति विरहकिसिआओ। धण्णाओ ताओ जाणं बहुवल्लह ! वल्लहो ण तुमं॥
(स.कं.१,११५, गा० स०२,४७) हे बहुवल्लभ (जिसे बहुत-सी महिलायें प्रिय है) ! जिनका तू प्रिय नहीं ऐसी जो नायिकायें ( तेरे विरह में) न दीर्घ श्वास छोड़ती हैं, न बहुत काल तक रुदन करती हैं और न कृश ही होती है, वे धन्य है । (अप्रस्तुत प्रशंसा अलङ्कार का उदाहरण)
ण मुअम्मि मुए वि पिए दिट्टो पिअअमो जिअन्तीए । इह लज्जा अ पहरिसो तीए हिअए ण संमाइ॥
(सं०६०५, १९१) प्रियतम के मर जाने पर मैं न मरी, और फिर जीती हुई मैंने उसे देखाइस प्रकार लज्जा और हर्ष के भाव उसके मन में नहीं समाते ।
णवपल्लवेसु लोलइ घोलइ विडवेसु चलइ सिहरेसु। थवइ थवएसु चलणे वसंतलच्छी असोअस्स ॥
(स० कं०४, २०३, ५,४५५)