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प्राकृत साहित्य का इतिहास
जनकसुता के स्पर्श से मानो बहुमूल्य बने, और हाथ से खींच कर छोड़े हुए रामचन्द्र के बाण रावण के शरीर में रोमांच पैदा कर रहे हैं।
हवी होहि पई बहुपुरिसविसेसचञ्चला राअसिरी । कहता महच्चि इमं णीसामण्णं उवद्विअं वेहव्वम् ॥ (स० कं०५, २६९; सेतु०
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११, ७८ )
पृथ्वी का अन्य कोई पति होगा और राज्यश्री अनेक असाधारण पुरुषों के विषय में चंचल रहती है, इस प्रकार असाधारण वैधव्य मेरे ही हिस्से में पड़ा है ( यह सीता की विलापोक्ति है ) ।
पेच्छइ अलद्धलक्खं दीहं णीससइ सुण्णअं हसइ 1 जह जंपइ अफुडत्थं तह से हिअअद्विअं किं वि ॥
(स० कं० २००; गा० स० ३,९६ ) वह निरुद्देश्य दृष्टि से देख रही है, दीर्घश्वास ले रही है, शून्य मुद्रा से हँस रही है और असंबद्ध प्रलाप कर रही है; उसके मन में कुछ और ही हैं । पोढ़महिलाण जं सुहं सिक्खिअं तं रए सुहावेइ ।
जं जं असिक्खिअं नववडूण तं तं रई देइ ॥
( स० कं० ३, ५६ ५, २२३, काव्या० पृ० ३९५, ६५५ ) रतिक्रीड़ा के समय प्रौढ़ महिलाओं ने जो कुछ सीखा है वह सुख देता है, और नवोढ़ाओं ने जो नहीं सीखा वह सुखदायी है। (उत्तर अलङ्कार का उदाहरण) पंथिय ! न एत्थ सत्थरमत्थि मणं पत्थरत्थले गाये । उन्नयपहरं पेक्खिऊण जइ वससि ता वससु ॥
( धन्या० २, १५५, काव्यप्रकाश ४, ५८; साहित्य० पृ० २४७ ) हे पथिक ! इस पथरीले गाँव में सोने के लिये तुम्हें कहीं विस्तर नहीं मिलेगा, हाँ यदि उन्नत पयोधरं ( स्तन; मेघ ) देखकर ठहरना चाहो तो ठहर जाओ । ( शब्दशक्ति मूलव्यञ्जना का उदाहरण ) पंथि ! पिपासिओ विअ लच्छीअसि जासि ता किमण्णत्तो । ण मणं वि वारओ इध अस्थि घरे वणरसं पिअन्ताणं ॥ (साहित्य० पृ० १५४ )
हे पथिक ! तू प्यासा जैसा मालूम होता है, अन्यत्र कहाँ जा रहा है ? यहाँ घर में जी भर कर रस पीने वालों को कोई बिलकुल भी रोकने वाला नहीं है । फुल्लुक्करं कलमकूरसमं वहन्ति, जे सिंदुवारविडवा मह वल्लहा ते । जे गालिदस्स महिसीदहिणो सरिच्छा ते किंपि मुद्धवियल्लपसूणपुञ्ज ॥ ( काव्या० पृ० २२७, २८८; काव्यप्र० ७, ३०९; कर्पूरमञ्जरी १ ० १९ )
वे सिंधुवार के वृक्ष मुझे कितने प्रिय लगते हैं जो कलम धान के समान पुष्पों से भरे हुए हैं, और वे मल्लिका के पुष्पपुंज भी कितने प्यारे लगते हैं जो जमाये
भैंस के दही के समान जान पड़ते हैं । ( ग्राम्यत्व गुण का उदाहरण )