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७६४ प्राकृत साहित्य का इतिहास
हे माँ ! तुम्हीं ने तो कहा था आज घर में सामान नहीं है, इसलिये बता कि मैं क्या करूँ ? दिन ढलता जा रहा है ( यहाँ नायिका के स्वैरविहार की इच्छा सूचित होती है)। (वाच्यरूप अर्थ की व्यंजना का उदाहरण)
माणदुमपरुसपवणस्स मामि ! सव्वंगणिव्वुदिअरस्स। उवऊहणस्स भई रइणाडअपुव्वरंगस्स ॥
(स० के० ५२१५; गा० स० ४,४४) हे मामी ! मानरूपी वृक्ष के लिये कठोर पवन, समस्त अङ्ग को मुखकारक और रतिरूपी नाटक के पूर्वरङ्ग ऐसे आलिङ्गन का कल्याण हो । (रूपक का उदाहरण)
मा पंथ रुंध महं अवेहि बालय! अहो सि अहिरीओ। अम्हे अणिरिकाओ सुण्णहरं रक्खियध्वं णो॥
(कान्य० पृ०८४, ८२, ध्वन्या०३, पृ० ३३२) हे नादान ! मेरा रास्ता मत रोक, दूर हट, तू कितना निर्लज्ज मालूम देता है ! मैं पराधीन हूँ और अपने शून्य गृह की मुझे रक्षा करनी है।
मामि ! हिअ व पीअं तेण जुआणेण मजमाणाए । ण्हाणहलिहाकडुअं अणुसोत्तजलं विअन्तेण ॥
(स० के० ५, २५७; गा० स० ३, ४६) हे मामी ! मेरे स्नान करते समय प्रवाह में बहने वाले मेरे खान की हल्दी से कडुए जल का पान करने वाले उस युवक ने मानो मेरे हृदय का ही पान कर लिया।
(तद्गुण अलंकार का उदाहण) मुण्डइआचुण्णकसाअसाहिअं पाणणावणविइण्णम् । तेलं पलिअथणीणं वि कुणेइ पीणुण्णए थणए ॥
(स० कं०३, १६२) गोरखमुंडी के चूर्ण के काढ़े के द्वारा तैयार किया हुआ और जल के नस्य से युक्त तेल लघु स्तनवाली नायिकाओं के स्तनों को भी पीन और उन्नत बना देता है ।
(काम्य का उदाहरण) मुण्डसिरे बोरफलं बोरोवरि बोरअं थिरं धरसि। विग्गुच्छाअइ अप्पा णालि अछेआ छलिजन्ति ॥
(अलंकार० पृ.८३) से मुंडित सिर पर वेर रख कर उस बेर के ऊपर दूसरा बेर रग्बना संभव नहीं, उसी प्रकार अपने आपको छिपाये हुए धून पुरुषों को छलना संभव नहीं।
मुद्धे ! गहण गेण्हउ तं धरि मुदं णिए हन्थे। णिच्छउ सुन्दरि ! तुह उवरि मम सुरअप्पहा अस्थि ॥
(स० के २, २) हे मुग्धे ! अपनी फीस ले ले, तृ. इग्न मुद्रा को अपने हाथ में रग्ब । हे सुन्दरि ! निश्चय ही तुमसे मुग्न-व्यवहार करना चाहता हूँ । (अपभ्रष्टा नायिका का उदाहरण)