Book Title: Prakrit Sahitya Ka Itihas
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 743
________________ ७३८ प्राकृत साहित्य का इतिहास जं परिहरि तीरइ मणअं पि ण सुन्दरत्तणगुणेण । अह णवरं जस्स दोसो पडिपक्खेहिं पि पडिवण्णो ॥ (काव्य० प्र०७, २१६ । यह गाथा आनन्दवर्धन के विषमबाणलीला की कही गई है) (कामविलास ऐसी वस्तु है कि ) इसकी सुंदरता के कारण इससे दूर रहना कभी संभव नहीं, क्योंकि विरोधी भी इसके दोषों का ही बखान करते हैं, इसका परिहार वे भी नहीं कर सकते। ज भणह तं सहीओ ! आम करेहामि तंतहा सव्वं ।. जइ तरइ रंभिडं मे धीरं समुहागए तम्मि ॥ (काव्या० पृ० ३९६, ६५७) हे सखियो ! जो-जो तुम कहोगी मैं सब कुछ करूंगी, बशर्ते कि उसके सामने आने पर मैं अपने आपको वश में रख सकूँ। (अनुमान अलंकार का उदाहरण) जं मुच्छिआ ण अ सुओ कलम्बगन्धेण तं गुणे पडि। इअरह गजिअसद्दो जीएण विणा न बोलिन्तो॥ (स० के०५, ३४४) कदंब की सुगंधि पाकर वह मूच्छित हो गई और मूर्छा के कारण वह मेघ की गर्जना न सुन सकी । यह अच्छा ही हुआ, नहीं तो गर्जना सुन कर उसके प्राणों का ही अंत हो जाता (कदंब की मादक सुगंध दोष माना जाता है, लेकिन यहाँ वह गुण सिद्ध हुआ है)। (मूर्छा का उदाहरण) ढंगुल्लिंतु मरीह सि कंटयकलिआई केअइवणाई। मालइकुसुमेण समं भमर ! भमंतो न पाविहिसि ॥ (काव्या० पृ० २४३, ५०५; ध्वन्या० पृ० २१३; काव्य० प्र० १०, ४०७). हे भ्रमर ! काँटों वाले केतकी के बन में भटकते-फिरते तुम भले ही मर जाओ, लेकिन मालती का-सा पुष्प तुम्हें कहीं न मिलेगा । (उपमा अलंकार का उदाहरण ) णअणब्भन्तरघोलन्तबाहभरमन्थराइ दिट्टीए। पुणरुत्तपेछिरीए वालअ! किं जंण भणिओ सि ॥ (स० के०५,१४९; गा० स०४,७१) नयनों के अश्रुभार से जड़ हुई दृष्टि से हे नादान ! बार-बार विलोकन करने वाली उस नायिका ने ऐसी कौन-सी बात है जो न कह दी हो। (संचारिभावों में अश्रु का उदाहरण) ण अ ताण घडइ ओही ण ते दीसन्ति कह वि पुणरुत्ता। जे विब्भमा पिआणं अत्था व सुकइवाणीणम् ॥ (ध्वन्या०४, पृ० ६३५) प्रियतमों के हाव-भाव और सुकवियों की वाणी के अर्थ की न कोई सीमा है और न वे पुनरुक्त जैसे दिखाई देते हैं ।

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